प्रेम सुधा सागर पृ. 419

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
इकसठवाँ अध्याय

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उस समय आकाशवाणी ने कहा—‘यदि धर्म-पूर्वक कहा जाय, तो बलरामजी ने ही यह दाँव जीता है। रुक्मी का यह कहना सरासर झूठ है कि उसने जीता है’। एक तो रुक्मी के सिरपर मौत सवार थी और दूसरे उसके साथी दुष्ट राजाओं ने भी उसे उभाड़ रखा था। इससे उसने आकाशवाणी पर कोई ध्यान न दिया और बलरामजी की हँसी उड़ाते हुए कहा—‘बलरामजी! आखिर आप लोग वन-वन भटकने वाले ग्वाले ही तो ठहरे! आप पासा खेलना क्या जानें ? पासों और बाणों से तो केवल राजालोग ही खेला करते हैं, आप-जैसे नहीं’। रुक्मी के इस प्रकार आक्षेप और राजाओं के उपहास करने पर बलराम जी क्रोध से आगबबूला हो थे। उन्होंने एक मुद्गर उठाया और उस मांगलिक सभा में ही रुक्मी को मार डाला।

पहले कलिंगनरेश दाँत दिखा-दिखाकर हँसता था, अब रंग में भंग देखकर वहाँ से भागा; परन्तु बलरामजी ने दस ही कदम पर उसे पकड़ लिया और क्रोध से उसके दाँत तोड़ डाले। बलरामजी ने अपने मुद्गर की चोट से दूसरे राजाओं की भी बाँह, जाँघ और सिर आदि तोड़-फोड़ डाले। वे खून से लथपथ और भयभीत होकर वहाँ से भागते बने। परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण ने यह सोचकर कि बलरामजी का समर्थन करने से रुक्मिणीजी अप्रसन्न होंगी और रुक्मी के वध को बुरा बतलाने से बलराम जी रुष्ट होंगे, अपने साले रुक्मी की मृत्यु पर भला-बुरा कुछ भी न कहा। इसके बाद अनिरुद्धजी का विवाह और शत्रु का वध दोनों प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर भगवान के आश्रित बलरामजी आदि यदुवंशी नवविवाहिता दुलहिन रोचना के साथ अनिरुद्धजी को श्रेष्ठ रथ पर चढ़ाकर भोजकट नगर से द्वारकापुरी को चले आये ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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