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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
उनसठवाँ अध्याय
इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण अमरावती में स्थित देवराज इन्द्र के महलों में गये। वहाँ देवराज इन्द्र ने अपनी पत्नी इन्द्राणी के साथ सत्यभामाजी और भगवान श्रीकृष्ण की पूजा की, तब भगवान ने अदिति के कुण्डल उन्हें दे दिये। वहाँ से लौटते समय सत्यभामाजी की प्रेरणा से भगवान श्रीकृष्ण ने कल्पवृक्ष उखाड़कर गरुड़ पर रख दिया और देवराज इन्द्र तथा समस्त देवताओं को जीतकर उसे द्वारका ले आये। भगवान ने उसे सत्यभामा के महल के बगीचे में लगा दिया। इससे उस बगीचे की शोभा अत्यन्त बढ़ गयी। कल्पवृक्ष के साथ उसके गन्ध और और मकरन्द के लोभी भौरें स्वर्ग से द्वारका में चले आये थे। परीक्षित्! देखो तो सही, जब इन्द्र को अपना काम बनाना था, तब तो उन्होंने अपना सिर झुकाकर मुकुट की नोक से भगवान श्रीकृष्ण के चरणों का स्पर्श करके उनसे सहायता की भिक्षा माँगी थी, परन्तु जब काम बन गया, तब उन्होंने उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण से लड़ाई ठान ली। सचमुच ये देवता भी बड़े तमोगुणी हैं और सबसे बड़ा दोष तो उनमें धनाढ्यता का है। धिक्कार है ऐसी धनाढ्यता को। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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