प्रेम सुधा सागर पृ. 403

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
उनसठवाँ अध्याय

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शरणागत-भय-भंजन प्रभो! मेरे पुत्र भौमासुर का यह पुत्र भगदत्त अत्यन्त भयभीत हो रहा है। मैं इसे आपके चरणकमलों की शरण में ले आयी हूँ। प्रभो! आप इसकी रक्षा कीजिये और इसके सिरपर अपना वह करकमल रखिये जो सारे जगत् के समस्त पाप-तापों को नष्ट करने वाला है।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं—परीक्षित्! जब पृथ्वी ने भक्तिभाव से विनम्र होकर इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति-प्रार्थना की, तब उन्होंने भगदत्त को अभयदान दिया और भौमासुर के समस्त सम्पत्तियों से सम्पन्न महल में प्रवेश किया। वहाँ जाकर भगवान ने देखा कि भौमासुर ने बलपूर्वक राजाओं से सोलह हजार राजकुमारियाँ छीनकर अपने यहाँ रख छोड़ी थीं। जब उन राजकुमारियों ने अन्तःपुर में पधारे हुए नरश्रेष्ठ भगवान श्रीकृष्ण को देखा, तब वे मोहित हो गयीं और उन्होंने उनकी अहैतु की कृपा तथा अपना सौभग्य समझकर मन-ही-मन भगवान को अपने परम प्रियतम पति के रूप में वरण कर लिया ।

उन राजकुमारियों में से प्रत्येक ने अलग-अलग अपने मन में यही निश्चय किया कि ‘ये श्रीकृष्ण ही मेरे पति हों और विधाता मेरी इस अभिलाषा को पूर्ण करें।’ इस प्रकार उन्होंने प्रेम-भाव से अपना हृदय भगवान के प्रति निछावर कर दिया। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन राजकुमारियों को सुन्दर-सुन्दर निर्मल वस्त्राभूषण पहनाकर पालकियों से द्वारका भेज दिया और उनके साथ ही बहुत-से खजाने, रथ, घोड़े तथा अतुल सम्पत्ति भी भेजी। ऐरावत के वंश में उत्पन्न हुए अत्यन्त वेगवान् चार-चार दाँतों वाले सफेद रंग के चौंसठ हाथी भी भगवान ने वहाँ से द्वारका भेजे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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