प्रेम सुधा सागर पृ. 402

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
उनसठवाँ अध्याय

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पृथ्वीदेवी ने कहा- शंखचक्रगदाधारी देव-देवेश्वर! मैं आपको नमस्कार करती हूँ। परमात्मन! आप अपने भक्तों की इच्छा पूर्ण करने के लिये उसी के अनुसार रूप प्रकट किया करते हैं। आपको नमस्कार करती हूँ। प्रभो! आपकी नाभि से कमल प्रकट हुआ है। आप कमल की माला पहनते हैं। आपके नेत्र कमल से खिले हुए और शान्तिदायक हैं। आपके चरण कमल के समान सुकुमार और भक्तों के हृदय को शीतल करने वाले हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ। आप समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, सम्पत्ति, ज्ञान और वैराग्य के आश्रय हैं। आप सर्वव्यापक होने पर भी स्वयं वसुदेवनन्दन के रूप में प्रकट हैं। मैं आपको नमस्कार करती हूँ। आप ही पुरुष हैं और समस्त कारणों के भी परम कारण हैं। आप स्वयं पूर्ण ज्ञानस्वरूप हैं। मैं आपको नमस्कार करती हूँ। आप स्वयं तो हैं जन्मरहित, परन्तु इस जगत् के जन्मदाता आप ही हैं। आप ही अनन्त शक्तियों के आश्रय ब्रह्मा हैं। जगत् का जो कुछ भी कार्य-कारणमय रूप है, जितने भी प्राणी या अप्राणी हैं—सब आपके ही स्वरूप हैं। परमात्मन! आपके चरणों में मेरे बार-बार नमस्कार।

प्रभो! जब आप जगत् की रचना करना चाहते हैं, तब उत्कट रजोगुण को, और जब इसका प्रलय करना चाहते हैं तब तमोगुण को, तथा जब इसका पालन करना चाहते हैं सत्त्वगुण को स्वीकार करते हैं। परन्तु यह सब करने पर भी आप इन गुणों से ढकते नहीं, लिप्त नहीं होते। जगत्पते! आप स्वयं ही प्रकृति, पुरुष और दोनों के संयोग-वियोग के हेतु काल हैं तथा उन तीनों से परे भी हैं। भगवन्! मैं (पृथ्वी), जल, अग्नि, वायु, आकाश, पंचतन्मात्राएँ, मन, इन्द्रिय और इनके अधिष्ठातृ-देवता, अहंकार और महतत्त्व-कहाँ तक कहूँ, यह सम्पूर्ण चराचर जगत् आपके अद्वितीय स्वरूप में भ्रम के कारण ही पृथक् प्रतीत हो रहा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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