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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
उनसठवाँ अध्याय
परीक्षित्! भौमासुर के सैनिकों ने भगवान पर जो-जो अस्त्र-शस्त्र चलाये थे, उनमें से प्रत्येक को भगवान ने तीन-तीन तीखे बाणों से काट गिराया। उस समय भगवान श्रीकृष्ण गरुड़जी पर सवार थे और गरुड़जी अपने पंखों से हाथियों को मार रहे थे। उनकी चोंच, पंख और पंजों की मार से हाथियों को बड़ी पीड़ा हुई और वे सब-के-सब आर्त होकर युद्धभूमि से भागकर नगर में घुस गये। अब वहाँ अकेला भौमासुर ही लड़ता रहा। जब उसने देखा कि गरुड़जी की मार से पीड़ित होकर मेरी सेना भाग रही है, तब उसने उन पर वह शक्ति चलायी, जिसने वज्र को भी विफल कर दिया था। परन्तु उसकी चोट से पक्षिराज गरुड़ तनिक भी विचलित न हुए, मानो किसी ने मतवाले गजराज पर फूलों की माला से प्रहार किया हो। अब भौमासुर ने देखा कि मेरी एक भी चाल नहीं चलती, सारे उद्योग विफल होते जा रहे हैं, तब उसने श्रीकृष्ण को मार डालने के लिये एक त्रिशूल उठाया। परन्तु उसे अभी वह छोड़ भी न पाया था कि भगवान श्रीकृष्ण ने छुरे के समान तीखी धार वाले चक्र से हाथी पर बैठे हुए भौमासुर का सिर काट डाला। उसका जगमगाता हुआ सिर कुण्डल आर सुन्दर किरीट के सहित पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसे देखकर भौमासुर के सगे-सम्बन्धी हाय-हाय पुकार उठे, ऋषिलोग ‘साधु-साधु’ कहने लगे और देवता लोग भगवान पर पुष्पों की वर्षा करते हुए स्तुति करने लगे । अब पृथ्वी भगवान के पास आयी। उसने भगवान श्रीकृष्ण के गले में वैजन्ती के साथ वनमाला पहना दी और अदिति माता के जगमगाते हुए कुण्डल, जो तपाये हुए सोने के एवं रत्नजटित थे, भगवान को दे दिये तथा वरुण का छत्र और साथ ही एक महामणि भी उनको दी। राजन्! इसके बाद पृथ्वीदेवी बड़े-बड़े देवताओं के द्वारा पूजित विश्वेश्वर भगवान श्रीकृष्ण को प्रणाम करके हाथ जोड़कर भक्तिभाव भरे हृदय से उनकी स्तुति करने लगीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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