प्रेम सुधा सागर पृ. 405

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
उनसठवाँ अध्याय

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तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण ने एक ही मुहूर्त में अलग-अलग भवनों में अलग-अलग रूप धारण करके एक ही साथ सब राजकुमारियों का शास्त्रोक्त विधि से पाणिग्रहण किया। सर्वशक्तिमान् अविनाशी भगवान के लिये इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है। परीक्षित्! भगवान की पत्नियाँ के अलग-अलग महलों में ऐसी दिव्य सामग्रियाँ भरी हुई थीं, जिनके बराबर जगत् में कहीं भी और कोई भी सामग्री नहीं है; फिर अधिक की तो बात ही क्या है। उन महलों में रहकर मति-गति के परे की लीला करने वाले अविनाशी भगवान श्रीकृष्ण अपने आत्मानन्द में मग्न रहते हुए लक्ष्मीजी की अंशस्वरूपा उन पत्नियों के साथ ठीक वैसे ही ही विहार करते थे, जैसे कोई साधारण मनुष्य घर-गृहस्थी में रहकर गृहस्थ-धर्म के अनुसार आचरण करता हो। परीक्षित्! ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता भी भगवान के वास्तविक स्वरूप को और उनकी प्राप्ति के मार्ग को नहीं जानते।

उन्हीं रमारमण भगवान श्रीकृष्ण को उन स्त्रियों ने पति के रूप में प्राप्त किया था। अब नित्य-निरन्तर उनके प्रेम और आनन्द की अभिवृद्धि होती रहती थी और वे प्रेमभरी मुसकराहट, मधुर चितवन, नवसमागम, प्रेमालाप तथा भाव बढ़ाने वाली लज्जा से युक्त होकर सब प्रकार से भगवान की सेवा करती रहती थीं। उनमें से सभी पत्नियों के साथ सेवा करने के लिये सैकड़ों दासियाँ रहतीं, फिर भी जब उनके महल में भगवान पधारते तब वे स्वयं आगे जाकर आदरपूर्वक उन्हें लिवा लातीं, श्रेष्ठ आसन पर बैठातीं, उत्तम सामग्रियों से पूजा करतीं, चरणकमल पखारतीं, पान लगाकर खिलातीं, पाँव दबाकर थकावट थकावट दूर करतीं, पंखा झलती, इत्र-फुलेल, चन्दन, चन्दन आदि लगतीं, फूलों के हार पहनातीं, केश सँवारतीं, सुलातीं, स्नान करातीं और अनेक प्रकार के भोजन कराकर अपने ही हाथों भगवान की सेवा करतीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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