प्रेम सुधा सागर पृ. 363

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
बावनवाँ अध्याय

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रुक्मिणी जी ने कहा है—त्रिभुवनसुन्दर! आपके गुणों को, जो सुनने वालों के कानों के रास्ते हृदय में प्रवेश करके एक-एक अंग के ताप, जन्म-जन्म की जलन बुझा देते हैं तथा अपने रूप-सौन्दर्य को जो नेत्र वाले जीवों के नेत्रों के धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—चारों पुरुषार्थों के फल एवं स्वार्थ-परमार्थ, सब कुछ हैं, श्रवण करके प्यारे अच्युत! मेरा चित्त लज्जा, शर्म सब कुछ छोड़कर आपमें ही प्रवेश कर रहा है। प्रेमस्वरूप श्यामसुन्दर! चाहे जिस दृष्टि से देखें; कुल, शील, स्वभाव, सौन्दर्य, विद्या, अवस्था, धन-धाम—सभी में आप अद्वितीय हैं, अपने ही समान हैं। मनुष्यलोक में जितने भी प्राणी हैं, सबका मन आपको देखकर शान्ति का अनुभव करता है, आनन्दित होता है। अब पुरुषभूषण! आप ही बतलाइये—ऐसी कौन-सी कुलवती महागुणी और धर्यवती कन्या होगी, जो विवाह के योग्य समय आने पर आपको ही पति के रम में वरण न करेगी ? इसीलिये प्रियतम! मैंने आपको पतिरूप से वरण किया है। मैं आपको आत्मसमर्पण कर चुकी हूँ। आप अन्तर्यामी हैं। मेरे हृदय की बात आपसे छिपी नहीं हैं। आप यहाँ पधार कर मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कीजिये। कमलनयन! प्राणवल्लभ! मैं आप-सरीखे वीर को समर्पित हो चुकी हूँ, आपकी हूँ। अब जैसे सिंह का भाग सियार छू जाय, वैसे कहीं शिशुपाल निकट से आकर मेरा स्पर्श न कर जाय। मैंने यदि जन्म-जन्म में पूर्त (कुआँ, बावली आदि खुदवाना), इष्ट (याज्ञादि करना), दान, नियम, व्रत तथा देवता, ब्राह्मण और गुरु आदि की पूजा के द्वारा भगवान परमेश्वर की ही आराधना की हो और वे मुझ पर प्रसन्न हों तो भगवान श्रीकृष्ण आकर मेरा पाणिग्रहण करें; शिशुपाल अथवा दूसरा कोई भी पुरुष मेरा स्पर्श न कर सके।

प्रभो! आप अजित हैं। जिस दिन मेरा विवाह होने वाला हो उसके एक दिन पहले आप हमारी राजधानी में गुप्त रूप से आ जाइये और फिर बड़े-बड़े सेनापतियों के साथ शिशुपाल तथा जरासन्ध की सेनाओं को मथ डालिये, तहस-नहस कर दीजिये और बलपूर्वक राक्षस-विधि से वीरता का मूल्य देकर मेरा पाणिग्रहण कीजिये। यदि आप यह सोचते हों कि ‘तुम तो अन्तःपुर में—भीतर के जनाने महलों में पहरे के अंदर रहती हो, तुम्हारे भाई-बंधुओं को मारे बिना मैं तुम्हें कैसे ले जा सकता हूँ ?’ तो इसका उपाय मैं आपको बतलाये देती हूँ। हमारे कुल का ऐसा नियम है कि विवाह के पहले दिन कुलदेवी का दर्शन करने के लिये एक बहुत बड़ी यात्रा होती है, जुलूस निकलता है—जिसमें विवाहि जाने वाली कन्या को, दुलहिन को नगर के बाहर गिरिजादेवी के मन्दिर में जाना पड़ता है। कमलनयन! उमापति भगवान शंकर के समान बड़े-बड़े महापुरुष भी आत्माशुद्धि के लिये आपके चरणकमलों की धूल से स्नान करना चाहते हैं। यदि मैं आपका वह प्रसाद, आपकी चरणधूल नहीं प्राप्त कर सकी तो व्रत द्वारा शरीर को सुखाकर प्राण छोड़ दूँगी। चाहे उसके लिये सैकड़ों जन्म क्यों ने लेने पड़े, कभी-न-कभी तो आपका वह प्रसाद अवश्य ही मिलेगा।

ब्राह्मणदेवता ने कहा—यदुवंशशुरोमणे! यही रुक्मिणी के अत्यन्त गोपनीय सन्देश हैं, जिन्हें लेकर मैं आपके पास आया हूँ। इसके सम्बन्ध में जो कुछ करना हो, विचार कर लीजिये और तुरंत ही उसके अनुसार कार्य कीजिये ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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