प्रेम सुधा सागर पृ. 364

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
तिरपनवाँ अध्याय

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रुक्मिणी हरण

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण ने विदर्भ राजकुमारी रुक्मिणीजी का यह सन्देश सुनकर अपनी हाथ से ब्राह्मण देवता का हाथ पकड़ लिया और हँसते हुए यों बोले ।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—ब्राह्मण देवता! जैसे विदर्भ राजकुमारी मुझे चाहती हैं, वैसे ही मैं भी उन्हें चाहता हूँ। मेरा चित्त उन्हीं में लगा रहता है। कहाँ तक कहूँ, मुझे रात के समय नींद तक नहीं आती। मैं जानता हूँ कि रुक्मी ने द्वेषवश मेरा विवाह रोक दिया है। परन्तु ब्राह्मण देवता! आप देखियेगा, जैसे लकड़ियों को मथकर—एक दूसरे से रगड़कर मनुष्य उनमें से आग निकाल लेता है, वैसे ही युद्ध में उन नामधारी क्षत्रियकुल-कलंकों को तहस-नहस करके अपने से प्रेम करने वाली परमसुन्दरी राजकुमारी को मैं निकाल लाउँगा।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! मधुसूदन श्रीकृष्ण ने यह जानकर कि रुक्मिणी के विवाह की लग्न परसों रात्रि ही है, सारथि को आज्ञा दी कि ‘दारुक! तनिक भी विलम्ब न करके रथ जोत लाओ’। दारुक भगवान के रथ में शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलवाहक नाम के चार घोड़े जोतकर उसे ले आया और हाथ जोड़कर भगवान के सामने खड़ा हो गया। शूरनन्दन श्रीकृष्ण ब्राह्मण देवता को पहले रथ पर चढ़ाकर फिर आप भी सवार हुए और उन शीघ्रगामी घोड़ों के द्वारा एक ही रात में आनर्त-देह से विदर्भ देश में जा पहुँचे ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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