प्रेम सुधा सागर पृ. 362

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
बावनवाँ अध्याय

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जब परमसुन्दरी रुक्मिणी को यह मालूम हुआ कि मेरा बड़ा भाई रुक्मी शिशुपाल के साथ मेरा विवाह करना चाहता है, तब वे बहुत उदास हो गयीं। उन्होंने बहुत कुछ सोंच-विचारकर एक विश्वास-पात्र ब्राह्मण को तुरंत श्रीकृष्ण के पास भेजा। जब वे ब्राह्मण-देवता द्वारकापुरी में पहुँचे तब द्वारपाल उन्हें राजमहल के भीतर ले गये। वहाँ जाकर ब्राह्मण-देवता ने देखा कि आदिपुरुष भगवान श्रीकृष्ण सोने के सिंहासन पर विराजमान हैं। ब्राह्मणों के परमभक्त भगवान श्रीकृष्ण उन ब्राह्मणदेवता को देखते ही अपने आसन से नीचे उतर गये और उन्हें अपने आसन पर बैठाकर वैसी ही पूजा की जैसे देव्तालोग उनकी (भगवान की) किया करते हैं। आदर-सत्कार, कुशल-प्रश्न के अनन्तर जब ब्राह्मणदेवता खा-पी चुके, आराम-विश्राम कर चुके तब संतों के परम आश्रय भगवान श्रीकृष्ण उनके पास गये और अपने कोमल हाथों से उनके पैर सहलाते हुए बड़े शान्त भाव से पूछने लगे—

‘ब्राह्मणशिरोमणे! आपका चित्त तो सदा-सर्वदा सन्तुष्ट रहता है न ? आपको अपने पूर्वपुरुषों द्वारा स्वीकृत धर्म का पालन करने में कोई कठिनाई तो नहीं होती। ब्राह्मण यदि जो कुछ मिल जाय उसी में सन्तुष्ट रहे और अपने धर्म का पालन करे, उससे च्युत न हो तो वह सन्तोष ही उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण कर देता है।

यदि इन्द्र का पद पाकर भी किसी को सन्तोष न हो तो उसे सुख के लिये एक लोक से दूसरे लोक में बार-बार भटकना पड़ेगा, वह कहीं भी शान्ति से बैठ नहीं सकेगा। परन्तु जिसके पास तनिक भी संग्रह-परिग्रह नहीं है और जो उसी अवस्था में सन्तुष्ट है, वह सब प्रकार से सन्तापरहित होकर सुख की नींद सोता है। जो स्वयं प्राप्त हुई वस्तु से सन्तोष कर लेते हैं, जिनका स्वभाव बड़ा ही मधुर है और जो समस्त प्राणियों के परम हितैषी, अहंकार रहित और शान्त हैं—उन ब्राह्मणों को मैं सदा सिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ। ब्राह्मणदेवता! राजा की ओर से तो आप लोगों को सब प्रकार की सुविधा है न ? जिसने राज्य में प्रजा का अच्छी तरह पालन होता है और वह आनन्द से रहती है, वह राजा मुझे बहुत ही प्रिय है। ब्राह्मणदेवता! आप कहाँ से, किस हेतु से और किस अभिलाषा से इतना कठिन मार्ग तय करके यहाँ पधारे हैं ? यदि कोई बात विशेष गोपनीय ने हो तो हमसे कहिये। हम आपकी क्या सेवा करें ?’परीक्षित्! लीला से ही मनुष्य रूप धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने जब इस प्रकार ब्राह्मण देवता से पूछा, तब उन्होंने सारी बात कह सुनायी। इसके बाद वे भगवान से रुक्मिणीजी का सन्देश कहने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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