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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
उनचासवाँ अध्याय
जो अपने धर्म से विमुख है - सच पूछिये, तो वह अपना लौकिक स्वार्थ भी नहीं जानता। जिनके लिये वह अधर्म करता है, वे तो उसे छोड़ ही देंगे; उसे कभी सन्तोष का अनुभव न होगा और वह अपने पापों की गठरी सिर पर लादकर स्वयं घोर नरक मन जायगा। इसलिये महाराज! यह बात समझ लीजिये कि यह दुनिया चार दिन की चाँदनी है, सपने का खिलवाड़ है, जादू का तमाशा है और है मनोराज्यमात्र! आप अपने प्रयत्न से, अपनी शक्ति से चित्त को रोकिये; ममतावश पक्षपात न कीजिये। आप समर्थ हैं, समत्व में स्थित हो जाइये और इस संसार की ओर से उपराम-शान्त हो जाइये। राजा धृतराष्ट्र ने कहा - दानपते अक्रूर जी! आप मेरे कल्याण की, भले की बात कह रहे हैं, जैसे मरने वाले को अमृत मिल जाय तो वह कभी उससे तृप्त नहीं हो सकता, वैसे ही मैं भी आपकी इन बातों से तृप्त नहीं हो रहा हूँ। फिर भी हमारे हितैषी अक्रूर जी! मेरे चंचल चित्त में आपकी यह प्रिय शिक्षा तनिक भी नहीं ठहर रही है; क्योंकि मेरा हृदय पुत्रों की ममता के कारण अत्यन्त विषम हो गया है। जैसे स्फटिक पर्वत के शिखर पर एक बार बिजली कौंधती है और दूसरे ही क्षण अन्तर्धान हो जाती है, वही दशा आपके उपदेशों की है। अक्रूर जी! सुना है कि सर्वशक्तिमान भगवान पृथ्वी का भार उतारने के लिये यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं। ऐसा कौन पुरुष है, जो उनके विधान में उलट-फेर कर सके। उनकी जैसी इच्छा होगी, वही होगा। भगवान की माया का मार्ग अचिन्त्य है। उसी माया के द्वारा इस संसार की सृष्टि करके वे इसमें प्रवेश करते हैं और कर्म तथा कर्मफलों का विभाजन कर देते हैं। इस संसार-चक्र की बरोक-टोक चाल में उनकी अचिन्त्य लीला-शक्ति के अतिरिक्त और कोई कारण नहीं है। मैं उन्हीं परमैश्वर्य शक्तिशाली प्रभु को नमस्कार करता हूँ। श्री शुकदेव जी कहते हैं - इस प्रकार अक्रूर जी महाराज धृतराष्ट्र का अभिप्राय जानकर और कुरुवंशी स्वजन-सम्बन्धियों से प्रेमपूर्वक अनुमति लेकर मथुरा लौट आये। परीक्षित! उन्होंने वहाँ भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी के सामने धृतराष्ट्र का वह सारा व्यवहार-बर्ताव, जो वे पाण्डवों के साथ करते थे, कह सुनाया, क्योंकि उनको हस्तिनापुर भेजने का वास्तव में उद्देश्य भी यही था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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