प्रेम सुधा सागर पृ. 343

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
उनचासवाँ अध्याय

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अक्रूर जी ने कहा - महाराज धृतराष्ट्र जी! आप कुरुवंशियों की उज्ज्वल कीर्ति को और भी बढ़ाइये। आपको यह काम विशेष रूप से इसलिये भी करना चाहिये कि अपने भाई पाण्डु के परलोक सिधार जाने पर अब आप राज्यसिंहासन के अधिकारी हुए हैं।

आप धर्म से पृथ्वी का पालन कीजिये। अपने सद् व्यवहार से प्रजा को प्रसन्न रखिये और अपने स्वजनों के साथ समान बर्ताव कीजिये। ऐसा करने से ही आपको लोक में यश और परलोक में सद्गति प्राप्त होगी।

यदि आप इसके विपरीत आचरण करेंगे तो इस लोक में आपकी निन्दा होगी और मरने के बाद आपको नरक में जाना पड़ेगा। इसलिये अपने पुत्रों और पाण्डवों के साथ समानता का बर्ताव कीजिये। आप जानते ही हैं कि इस संसार में कभी कहीं कोई किसी के साथ सदा नहीं रह सकता। जिनसे जुड़े हुए हैं, उनसे एक दिन बिछुड़ना पड़ेगा ही। राजन! यह बात अपने शरीर के लिए भी सोलहों आने सत्य है। फिर स्त्री, पुत्र, धन आदि को छोड़कर जाना पड़ेगा, इसके विषय में तो कहना ही क्या है।

जीव अकेला ही पैदा होता है और अकेला ही मरकर जाता है। अपनी करनी-धरनी का, पाप-पुण्य का फल भी अकेला ही भुगतता है। जिन स्त्री-पुत्रों को हम अपना समझते हैं, वे तो ‘हम तुम्हारे अपने हैं, हमारा भरण-पोषण करना तुम्हारा धर्म है’ - इस प्रकार की बातें बनाकर मूर्ख प्राणी के अधर्म से इकट्ठे किये हुए धन को लूट लेते हैं, जैसे जल में रहने वाले जन्तुओं के सर्वस्व जल को उन्हीं के सम्बन्धी चाट जाते हैं। यह मूर्ख जीव जिन्हें अपना समझकर अधर्म करके भी पालता-पोसता है, वे ही प्राण, धन और पुत्र आदि इस जीव को असंतुष्ट छोड़कर ही चले जाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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