प्रेम सुधा सागर पृ. 318

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
छियालीसवाँ अध्याय

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नन्दबाबा और माता यशोदानजी! आप दोनों परम भाग्यशाली हैं। खेद न करें। आप श्रीकृष्ण को अपने पास ही देखेंगे; क्योंकि जैसे काष्ठ में अग्नि सदा ही व्यापक रूप से रहती है, वैसे ही वे समस्त प्राणियों के हृदय में सर्वदा विराजमान रहते हैं।

एक शरीर के प्रति अभिमान न होने के कारण न तो कोई उनका प्रिय है और न तो अप्रिय। वे सबमें और सबके प्रति समान हैं; इसलिये उनकी दृष्टि में न तो कोई उत्तम है और न तो अधम। यहाँ तक कि विषमता का भाव रखने वाला भी उनके लिये विषम नहीं है। न तो उनकी कोई माता है और न पिता। न पत्नी है और न तो पुत्र आदि। न अपना है और न तो पराया। न देह है और न तो जन्म ही। इस लोक में उनका कोई कर्म नहीं है फिर भी वे साधुओं के परित्राण के लिये, लीला करने के लिये देवादि सात्त्विक, मत्स्यादि तामस एवं मनुष्य आदि मिश्र योनियों में शरीर धारण करते हैं।

भगवान अजन्मा है। उसमें प्राकृत सत्त्व, रज आदि में से एक भी गुण नहीं है। इस प्रकार इन गुणों से अतीत होने पर भी लीला के लिये खेल-खेल में वे सत्त्व, रज और तम - इन तीनों गुणों को स्वीकार कर लेते हैं और उनके द्वारा जगत की रचना, पालन और संहार करते हैं। जब बच्चे घुमरीपरेता खेलने लगते हैं या मनुष्य वेग से चक्कर लगाने लगते हैं, तब उन्हें सारी पृथ्वी घूमती हुई जान पड़ती है। वैसे ही वास्तव में सब कुछ करने वाला चित्त ही है; परन्तु उस चित्त में अहंबुद्धि हो जाने के कारण, भ्रमवश उसे आत्मा - अपना ‘मैं’ समझ लेने के कारण, जीव अपने को कर्ता समझने लगता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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