प्रेम सुधा सागर पृ. 106

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
त्रयोदश अध्याय

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उनके वक्षःस्थल पर सुवर्ण की सुनहली रेखा - श्रीवत्स, बाहुओं में बाजूबंद, कलाइयों में शंखाकार रत्नों से जड़े कंगन, चरणों में नुपुर और कड़े, कमर में करधनी तथा अँगुलियों में अंगूठियाँ जगमगा रहीं थीं। वे नख से शिख तक समस्त अंगों में कोमल और नूतन तुलसी की मालाएँ, जो उन्हें बड़े भाग्यशाली भक्तों ने पहनायी थीं, धारण किये हुए थे। उनकी मुस्कान चाँदनी के समान उज्ज्वल थी और रतनारे नेत्रों की कटाक्षपूर्ण चितवन बड़ी ही मधुर थी। ऐसा जान पड़ता था मानो वे इस दोनों के द्वारा सत्त्वगुण और रजोगुण को स्वीकार करके भक्तजनों के हृदय में शुद्ध लालसाएँ जगाकर उनको पूर्ण कर रहे हैं।

ब्रह्मा जी ने यह भी देखा कि उन्हीं के जैसे दूसरे ब्रह्मा से लेकर तृण तक सभी चराचर जीव मूर्तिमान होकर नाचते-गाते अनेक प्रकार की पूजा-सामग्री से अलग-अलग भगवान के उन सब रूपों की उपासना कर रहे हैं। उन्हें अलग-अलग अणिमा-महिमा आदि सिद्धियाँ, माया-विद्या आदि विभूतियाँ और महत्तत्त्व आदि चौबीसों तत्त्व चारों ओर से घेरे हुए है। प्रकृति में क्षोभ उत्पन्न करने वाला काल, उसके परिणाम का कारण स्वभाव, वासनाओं को जगाने वाला संस्कार, कामनाएँ, कर्म, विषय और फल - सभी मूर्तिमान होकर भगवान के प्रत्येक रूप की उपासना कर रहें हैं। भगवान की सत्ता और महत्ता के सामने उन सभी की सत्ता और महत्ता अपना अस्तित्व खो बैठी थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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