प्रेम सुधा सागर पृ. 107

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
त्रयोदश अध्याय

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ब्रह्मा जी ने यह भी देखा कि वे सभी भूत, भविष्यत और वर्तमान काल के द्वारा सीमित नहीं हैं, त्रिकालाबाधित सत्य हैं। वे सब-के-सब स्वयं प्रकाश और केवल अनन्त आनन्द स्वरूप हैं। उनमें जड़ता अथवा चेतना का भेदभाव नहीं है। वे सब-के-सब एक-रस हैं। यहाँ तक कि उपनिषद्दर्शी तत्त्वज्ञानियों की दृष्टि भी उनकी अनन्त महिमा का स्पर्श नहीं कर सकती। इस प्रकार ब्रह्मा जी ने एक साथ ही देखा कि वे सब-के-सब उन परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण के ही स्वरूप हैं, जिनके प्रकाश से यह सारा जगत प्रकाशित हो रहा है।

यह अत्यन्त आश्चर्यमय दृश्य देखकर ब्रह्मा जी तो चकित रह गये। उनकी ग्यारहों इन्द्रियाँ [1] क्षुब्ध एवं स्तब्ध रह गयीं। वे भगवान के तेज से निस्तेज होकर मौन हो गये। उस समय वे ऐसे स्तब्ध होकर खड़े रह गये, मानो ब्रज के अधिष्ठातृ-देवता के पास एक पुतली खड़ी हो।

परीक्षित! भगवान का स्वरूप तर्क से परे है। उसकी महिमा असाधारण है। वह स्वयं प्रकाश, आनन्दस्वरूप और माया से अतीत है। वेदान्त भी साक्षात रूप से उनका वर्णन करने में असमर्थ हैं, इसलिए उससे भिन्न का निषेध करके आनन्दस्वरूप ब्रह्म का किसी प्रकार कुछ संकेत करता है। यद्यपि ब्रह्मा जी समस्त विद्याओं के अधिपति हैं, तथापि भगवान के दिव्यस्वरूप को वे तनिक भी न समझ सके कि यह क्या है। यहाँ तक कि वे भगवान के उन महिमामय रूपों को देखने में भी असमर्थ हो गये। उनकी आँखें मुँद गयीं। भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्मा के इस मोह और असमर्थता को जानकर बिना किसी प्रयास के तुरंत अपनी माया का परदा हटा दिया। इससे ब्रह्मा जी को बाह्यज्ञान हुआ। वे मानो मरकर फिर जी उठे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक मन

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