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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
त्रयोदश अध्याय
परीक्षित! तब तक ब्रह्मा जी ब्रह्मलोक से ब्रज में लौट आये। उनके कालमान से अब तक केवल एक त्रुटि[1] समय व्यतीत हुआ था। उन्होंने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण ग्वालबाल और बछड़ों के साथ एक साल से पहले की भाँति ही क्रीडा कर रहे हैं। वे सोचने लगे - ‘गोकुल में जितने भी ग्वालबाल और बछड़े थे, वे तो मेरी मायामयी शैय्या पर सो रहे हैं - उनको तो मैंने अपनी माया से अचेत कर दिया था; वे तब से अब तक सचेत नहीं हुए। तब मेरी माया से मोहित ग्वालबाल और बछड़ों के अतिरिक्त ये उतने ही दूसरे बालक तथा बछड़े कहाँ से आ गये, जो एक साल से भगवान के साथ खेल रहे हैं? ब्रह्मा जी ने दोनों स्थानों पर दोनों को देखा और बहुत देर तक ध्यान करके अपनी ज्ञानदृष्टि से उनका सहस्य खोलना चाहा; परन्तु इन दोनों में कौन-से पहले के ग्वालबाल हैं और कौन-से पीछे बना लिये गये हैं, इसमें से कौन सच्चे हैं और कौन बनावटी - यह बात वे किसी प्रकार न समझ सके। भगवान श्रीकृष्ण की माया में तो सभी मुग्ध हो रहे हैं, परन्तु कोई भी माया-मोह भगवान का स्पर्श नहीं कर सकता। ब्रह्मा जी उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण को अपनी माया से मोहित करने चले थे। किन्तु उनको मोहित करना तो दूर रहा, वे अजन्मा होने पर भी अपनी ही माया से अपने-आप मोहित हो गये। जिस प्रकार रात के घोर अन्धकार में कुहरे के अन्धकार का और दिन के प्रकाश में जुगनू के प्रकाश का पता नहीं चलता, वैसे ही जब क्षुद्र पुरुष महापुरुषों पर अपनी माया का प्रयोग करते हैं, तब वह उनका तो कुछ बिगाड़ नहीं सकती, अपना ही प्रभाव खो बैठती है। ब्रह्मा जी विचार कर ही रहे थे कि उनके देखते-देखते उसी क्षण सभी ग्वालबाल और बछड़े श्रीकृष्ण के रूप में दिखायी पड़ने लगे। सब-के-सब सजल जलधर के समान श्यामवर्ण, पीताम्बरधारी, शंख, चक्र, गदा और पद्म से युक्त - चतुर्भुज। सबके सिर पर मुकुट, कानों में कुण्डल और कण्ठों में मनोहर हार तथा वनमालाएँ शोभायमान हो रहीं थीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जितनी देर में तीखी सुई से कमल की पँखुडी छिदे
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