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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
द्वाविंश अध्याय
आज की बात निराली है। भोग प्रधान देशों में तो नग्न सम्प्रदाय और नग्न स्नान के क्लब भी बने हुए हैं। उनकी दृष्टि इन्द्रिय-तृप्ति तक ही सीमित है। भारतीय मनोवृत्ति इस उत्तेजक एवं मलिन व्यापार के विरुद्ध है। नग्नस्नान एक दोष है, जो कि पशुत्व को बढ़ाने वाला है। शास्त्रों में इसका निषेध है, ‘न नग्नः स्नाचात्’ - यह ही नहीं—भारतीय ऋषियों का वह सिद्धान्त, जो प्रत्येक वस्तु में पृथक्-पृथक् देवताओं का आस्तित्व मानता है, इस नग्नस्नान को देवताओं के विपरीत बतलाता है। श्रीकृष्ण जानते थे कि इससे वरुण देवता का अपमान होता है। गोपियाँ अपनी अभीष्ट-सिद्धि के लिये जो तपस्या कर रही थीं, उसमें उनका नग्नस्नान अनिष्ट फल देने वाला सकता था और इस प्रथा के प्रभात में ही यदि इसका विरोध न कर दिया जाय तो आगे चलकर इसका विस्तार हो सकता है; इसलिये श्रीकृष्ण ने अलौकिक ढंग से निषेध कर दिया। श्रीकृष्ण आठ-नौ वर्ष के थे, उनमें कामोत्तेजना नहीं हो सकती और नग्नस्नान की कुप्रथा को नष्ट करने के लिये उन्होंने चीरहरण किया - यह उत्तर सम्भव होने पर भी भी मूल के आये हुए ‘काम’ और ‘रमण’ शब्दों से कई लोग भड़क उठते हैं। यह केवल शब्द की पकड़ है, जिस पर महात्मा लोग ध्यान नहीं देते। श्रुतियों में और गीता में भी अनेकों बार ‘काम’ ‘रमण’ और ‘रति’ आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है; परन्तु वहाँ उनका अश्लील अर्थ नहीं होता। गीता में तो ‘धर्माविरुद्ध काम’ तो परमात्मा का स्वरूप बतलाया गया है। महापुरुषों का आत्मरमण, आत्ममिथुन और आत्मरति प्रसिद्ध ही है। ऐसी स्थिति में केवल कुछ शब्दों को देखकर भड़कना विचार शील पुरुषों का काम नहीं है। जो श्रीकृष्ण को केवल मनुष्य समझते हैं उन्हें रमण और रति शब्द का अर्थ केवल क्रीड़ा अथवा खिलवाड़ समझना चाहिये, जैसा कि व्याकरण के अनुसार ठीक है - ‘रमु क्रीडायाम्।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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