प्रेम सुधा सागर अध्याय 22 श्लोक 27 का विस्तृत संदर्भ/7

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
द्वाविंश अध्याय

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भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं के सम्बन्ध में केवल वे ही प्राचीन आर्षग्रन्थ प्रमाण हैं जिनमें उनकी लीला का वर्णन हुआ है। उनमें से एक भी ऐसा ग्रन्थ नहीं है, जिसमें श्रीकृष्ण की भगवत्ता का वर्णन न हो। श्रीकृष्ण ‘स्वयं भगवान हैं’ यही बात सर्वत्र मिलती है। जो श्रीकृष्ण को भगवान नहीं मानते, वे उनमें वर्णित लीलाओं के आधार पर श्रीकृष्ण-चरित्र की समीक्षा करने का अधिकार भी नहीं रखते। भगवान की लीलाओं को मानवीय चरित्र के समकक्ष रखना शस्त्र-दृष्टि से एक महान अपराध है और उसके अनुकरण का तो सर्वथा ही निधेध है। मानव बुद्धि, जो स्थूलताओं से ही परिवेष्टित है, केवल जड़ के सम्बन्ध में ही सोच सकती है, भगवान की दिव्य चिन्मयी लीला के सम्बन्ध में कोई कल्पना ही नहीं कर सकती। वह बुद्धि स्वयं ही अपना उपहास करती है, जो समस्त बुद्धियों के प्रेरक और बुद्धियों से अत्यन्त परे रहने वाने परमात्मा की दिव्य लीला को अपनी कसौटी पर कसती है।

हृदय और बुद्धि के के सर्वथा विपरीत होने पर भी यदि थोड़ी देर के लिये मान लें कि श्रीकृष्ण भगवान नहीं थे या उनकी यह लीला मानवी थी तो भी तर्क और युक्ति के सामने ऐसी कोई बात नहीं टिक पाती जो श्रीकृष्ण के चरित्र में लाञ्छन हो। श्रीमद्भागवत का पारायण करने वाले जानते हैं कि व्रज में श्रीकृष्ण ने केवल ग्यारह वर्ष की अवस्था तक ही निवास किया था। यदि रासलीला का समय दसवाँ वर्ष मानें तो नवें वर्ष में ही चीरहरण लीला हुई थी। इस बात की कल्पना भी नहीं हो सकती कि आठ-नौ वर्ष के बालक में कामोत्तेजना हो सकती है। गाँव की गँवारिन ग्वालिनें, जहाँ वर्तमानकाल की नागरिक मनोवृत्ति नहीं पहुँच पायी है, एक आठ-नौ वर्ष के बालक से अवैध सम्बन्ध करना चाहें और उसके लिये साधना करें, यह कदापि सम्भव नहीं दीखता। उन कुमारी गोपियों की मन में कलुषित वृत्ति थी, यह वर्तमान कलुषित मनोवृत्ति की उत्तंगा है। आज कल जैसे गाँव की छोटी-छोटी लडकियाँ ‘राम’-सा वर और ‘लक्ष्मण’-सा देवर पाने के लिये देवी-देवताओं की पूजा करती हैं, वैसे ही उन कुमारियों ने भी परम सुन्दर, परम मधुर श्रीकृष्ण को पाने के लिये देवी-पूजन और व्रत किये थे। इसमें दोष की कौन-सी बात है ?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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