प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 122

प्रेम सत्संग सुधा माला

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87- एक बार एक संत ने कहा था कि संतों के संग में किसी प्रकार टिके रहो। प्रेमी संतों के अन्दर जो प्रेम समुद्र लहराता रहता है, वह बराबर प्रकट नहीं रहता, छिपा हुआ रहता है। किसी दिन उसमें उफान आया, तुम पास में रहे और तुम पर एक छींटा भी पड़ गया कि ‘उसी क्षण बिना किसी परिश्रम के भगवत्प्रेम प्राप्त करके कृतार्थ हो जाओगे।’ भाव यह था कि प्रेमी संतों के संग का का लाभ तो अमूल्य होता ही है; पर कभी-कभी उनका जो भगवत्प्रेम है, वह बाहर प्रकट होकर बहने लग जाता है। सदा ऐसा नहीं होता। अब कल्पना करें, कोई सदा से संग में रहता आया है। वह यदि उस क्षण वहाँ उपस्थित रहता तो उसे उस प्रेम के प्रभाव से भगवत्प्रेम की प्राप्ति हो जायगी। इसलिये कोई भी दूसरी लालसा, दूसरी शर्त न रखकर, धैर्य रखकर संतों का संग करना चाहिये।

वास्तव में बात यह है कि भगवत्प्रेम साधना से नहीं मिलता। यह तो उसी को मिलता है, जिसे भगवान् या कोई प्रेमी संत दे दें। मोक्ष साधना से मिल सकता है, पर प्रेम नहीं। महाप्रभु के जीवन से यह बात भलीभाँति प्रमाणित हो जाती है। एक भक्त थे, वे बेचारे सबको प्रेम में विभोर होते देखते; पर उनको प्रेम नहीं होता। एक दिन वे महाप्रभु का चरण पकड़कर रोने लग लगे। महाप्रभु ने कहा- ‘अच्छा, कल गंगा-स्नान करके आना।’ कल हुआ, वे गंगा-स्नान करके आये। प्रभु ने उन्हें छू दिया। उसी क्षण वे प्रेमावेश से मूर्च्छित होकर गिर पड़े। सचमुच प्रेम कुछ इतनी विलक्षण वस्तु है कि जहाँ कहीं भी वह प्रकट होता है वहाँ प्रायः ऐसे ही एकाएक प्रकट होता है। श्रद्धा होनी चाहिये।

पद्मपुराण में एक कथा आती है- एक राजकुमार था। उसके मन में आया- कैसे भजन होता है, श्यामसुन्दर का प्रेम क्या वस्तु है, किससे जाकर पूछूँ, कौन बताये? इसी चिन्ता में वह सो गया। उसके घर में एक ठाकुरजी का विग्रह था। उन्हीं के विग्रह के सम्बन्ध में स्वप्न आरम्भ हुआ। स्वप्न में उसने देखा कि वह विग्रह राधा-कृष्ण के रूप में बदल गया। वहाँ उसे साक्षात् श्रीराधा-कृष्ण दीखने लगे। सखियाँ भी दीखने लगीं। फिर श्रीकृष्ण ने अपनी बायीं ओर बैठी हुई एक सखी से कहा- ‘प्रिये! इसे अपने समान बना लो।’ वह गोपी आज्ञा पाकर आयी, राजकुमार के पास खड़ी हो गयी तथा अभेद भाव से राजकुमार का चिन्तन करने लगी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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