प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 123

प्रेम सत्संग सुधा माला

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राजकुमार ने देखा कि एक क्षण में ही उसके सारे अंग बदल गये; उसके हाथ, पैर, सिर, मुँह, नाक- सब बदल गये और वह एक अत्यन्त सुन्दर गोपी बन गया। उसके बाद उस गोपी ने इसे एक वीणा दे दी कि ‘यह लो, श्यामसुन्दर को भजन सुनाओ।’ उसने भजन सुनाना आरम्भ किया। भजन सुनाने पर श्यामसुन्दर ने प्रसन्न होकर उसका आलिंगन किया, उसे हृदा से लगा लिया। इसी समय राजकुमार की नींद खुल गयी। राजकुमार रोने लग गया। निरन्तर एक महीने तक रोता रहा। फिर उसने हर छोड़ दिया और वन में जाकर कई कल्पों अक एक मन्त्र का जप एवं युगल सरकार का ध्यान करता रहा। तब उसे सचमुच गोपी का देह प्राप्त हुआ और उसे भजन सुनाने की वही सेवा मिली।

नारदजी को जब दर्शन हुआ तब एक सखी ने सब सखियों का परिचय दिया कि पूर्वजन्म में यह अमुक ऋषि थे, यह अमुक, इन्होंने यह मन्त्र जपा था, यह ध्यान किया था। उसी प्रसंग में नारदजी को उस सखी ने बताया कि जिस सखी के हाथ में वीणा देख रहे हो, वह पहले जन्म में राजकुमार रह चुकी है।’

सारांश यह है कि यों तो प्रेम कल्पों की साधना के बाद कभी किसी बड़भागी को मिलता है, पर जब वह प्रेम मिलने का उपक्रम होता है, तब एकाएक होता है। उसके लिये कोई साधना है, प्रेम मिल ही जायगा- यह कहना नहीं बनता। हाँ, यह ठीक है कि सच्चे प्रेमियों या संतों का संग अमोघ होता है। वह किसी-न-किसी दिन प्रेम उत्पन्न कर ही देता है।

88- सबसे ऊँचा प्रेम श्रीगोपीजनों का ही है। इसी प्रेम में रासलीला में सम्मिलित होने का अधिकार मिलता है और किसी भी प्रेम में नहीं। पर यह गोपी प्रेम भी सचमुच साधना का फल नहीं है। यह तो किसी गोपी-भावापन्न संत, किसी गोपी अथवा श्रीकृष्ण की कृपा से ही प्राप्त होता है। हाँ, कृपा प्राप्त करने के अधिकारी सभी हैं। श्रीकृष्ण की निन्दा करने वाला भी कभी-कभी विलक्षण कृपा प्राप्त करके निहाल हो जाता है। फिर कृपा चाहने वाला निहाल हो, इसमें संदेह ही क्या है। काशी में भारत के एक बड़े भारी वेदान्ती थे। उनसे बड़ा उस समय कोई नहीं था। नाम था स्वामी प्रकाशानन्दजी। दिन-रात भक्तों का मजाक उड़ाया करते थे। महाप्रभु काशी में आये, दर्शन हुए। दर्शन करते ही चित्त में उथल-पुथल मच गयी। लम्बी कथा है। फिर वे ऐसे प्रेमी बने कि दिन-रात सखी भाव से राधा-कृष्ण के प्रेम में डूबे रहते। जब जीवन पलटता है, तब ऐसे ही पलट जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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