गोपी प्रेम -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 39

गोपी प्रेम -हनुमान प्रसाद पोद्दार

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योगमाया के प्रभाव से ही कंस के दरबार में प्रवेश करते समय एकादशवर्षीय बालक श्रीकृष्ण को मल्लों ने वज्र के समान, नागरिकों ने विलक्षण नरश्रेष्ठरूप में, स्त्रियों ने मूर्तिमान् कामदेव के तुल्य, गोपों ने निज जनके सदृश, दुष्ट राजाओं ने शासक के समान, वसुदेव और देवकी ने पुत्ररूप में, कंस ने साक्षात् मृत्युरूप में, विद्वानों ने विराट् पुरूष के रूप में, योगियों ने परमतत्त्व के रूप में और यादवों ने परम देवता के रूप में देखा।

यह पूर्णकाम, सत्यकाम योगेश्वरेश्वर, षडैश्वर्यपूर्ण अघटन-घटनापटीयसी योगमाया के संचालक, हृदिनी शक्ति के शक्तिमान्, भक्तवाञ्छा- कल्पतरू साक्षात् भगवान् और उन्हींके प्रतिबिम्ब रूप भक्तों की दिव्य प्रेमलीला थी।

वास्तव में श्रीकृष्ण के साथ राधा का सर्वथा अभेद है। श्रीकृष्ण के सौन्दर्य और माधुर्य का आस्वाद करने वाली श्रीकृष्ण की अपनी ही ह्लादिनी शक्ति का नाम श्रीराधा है और श्रीकृष्ण की असंख्य शक्तियों में से जो शक्तियाँ इस हृादिनी शक्ति की पुष्टिकारिणी हैं, वे ही श्रीराधा की सहचरी सखियाँ श्रीगोपियाँ हैं। उनमें भी सखी, सहेली, सहचरी, दूतिका, दासी आदि कई भेद हैं; श्रीकृष्ण सुन्दरतम और मधुरतम है; इसीलिये वे रसराज, साक्षात् मन्मथ-मन्मथ, कोटि-मनोज-लजवानिहारे, कन्दर्प के मूलबीज-दिव्य, नित्य,नवीन मदन, विज्ञानानन्दघन परम पुरूषोत्तम हैं और श्रीराधा, श्रीकृष्ण के सौन्दर्य-माधुर्य से मुग्ध श्रीकृष्ण-अनुरागमयी, श्रीकृष्णभावमयी परा-प्रकृति हैं। श्रीकृष्ण इस अपनी ही शक्ति द्वारा अपने सौन्दर्य-माधुर्य का रसास्वादन करते हैं। यही रसराज श्रीकृष्ण और रसरागिणी श्रीराधा की पारस्परिक प्रेम सम्पत्ति है। यह प्रेम मानवीय नहीं है, यह नरलोक में नहीं होता। इसीलिये श्रीचैतन्यचरितामृत में कहा गया है-

परकीया भावे अति रसेर उल्लास
व्रजबिना इहार अन्यत्र नाहि बास।।

इस अति रसके उल्लासरूप दिव्य परकीया भाव का व्रज के (दिव्य श्रीकृष्ण प्रेममय गोलोक के) अतिरिक्त अन्यत्र कहीं निवास नहीं है और इसीलिये ये व्रजराज रसराज श्रीकृष्ण इस वृन्दावन को छोड़कर एक पैंड भी कहीं नहीं जाते-

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