गोपी प्रेम -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 38

गोपी प्रेम -हनुमान प्रसाद पोद्दार

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जिनमें अणिमादि आठों ऐश्वर्य विद्यमान हों; जो धर्म, यश, श्री, वैराग्य और ज्ञान के अपार और अटूट भण्डार हों उन्हींको भगवान् कहते हैं-

ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसश्श्रियः।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा।।[1]

इस प्रकार षडैश्वर्यपूर्ण भगवान् में कामवासना या औपपत्य घट ही नहीं सकता। भगवान् ने यह सारी लीला अपनी योगमाया के द्वारा की। जिसकी जैसी इच्छा थी; भक्तवाञ्छकल्पतरु भगवान् की योगमाया से उसे वैसा ही होता प्रतीत हुआ। योगमया (भगवान की अपनी दिव्य नित्य शक्ति)- के प्रभाव से ही निःसंग भगवान् सृष्टि, स्थिति और प्रलय की लीला किया करते हैं। ऐन्द्रजालिक जिस प्रकार अपने इच्छानुसार दर्शकों को मोहित करके मनमानी घटनाएँ उन्हें दिखाता है, इसी प्रकार भगवान् ने योगमाया से लीलाएँ कीं। राधिका जी योगमाया का स्वरूप थीं। योगमाया के दूसरे एक स्वरूप को पहले भेजकर किसको सन्देश दिलाया था और उसी योगमाया के द्वारा व्रज में भगवान् ने दिव्य लीला-विलास किया। ब्रह्मा के द्वारा गोप-बालकों के और गोवत्सों के हरण किये जाने पर पाँच वर्ष के शिशु श्रीकृष्ण अपनी योगमाया के प्रभाव से स्वयं गोप-बालक, बछड़े और उनके सारे सामान-कपड़े, सींग, लाठी आदि बन गये। छः वर्ष के बालक श्रीकृष्ण ने अपनी योगमाया के प्रभाव से कालियदमन और दावाग्निपान किया। इसी अवस्था में भगवान् ने पति रूप से चाहने वाली व्रज बालाओं का मायाभ्रम दूर करके सम्पूर्ण आत्मसमर्पण की योग्यता प्रदान करने के लिये उनके वस्त्र-हरण की लीला की। इसी योगमाया के प्रभाव से सात वर्ष के बालक श्रीकृष्ण को व्रजयुवतियों ने नवयौवन सम्पन्न देखा। इसी अपनी योगमाया के प्रभाव से रासमण्डल में भगवान् क्रीडा (रमण) करते हुए प्रतीत हुए इसी योगमाया के बल से प्रत्येक गोपी ने गोपीनाथ को अपने साथ देखा। बालक जैसे दर्पण में अपने प्रतिबिम्ब के साथ स्वच्छन्द खेलता है, इसी प्रकार योगमाया के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी छायास्वरूपा गोपियों से विलास किया-

रेमे रमेशो व्रजसुन्दरीभि-
र्यथार्भकः स्वप्रतिबिम्बविभ्रमः।। [2]

और योगमाया के प्रभाव से ही व्रजवासियों ने रास में गयी हुई अपनी - अपनी पत्नियों को अपने पास ही सोये हुए देखा-

मन्यमानाः स्वपार्श्वस्थान् स्वान् स्वान् दारान् व्रजौकसः।।[3]
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  1. (श्रीविष्णुपुराण 6।5।74)
  2. (श्रीमद्भा0 10।33।17)
  3. (श्रीमद्भा0 10। 33। 17)

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