गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
ग्यारहवाँ प्रकरण
इस बात पर ध्यान देने से पाठक सहज ही जान जायँगें, कि जन्म से ही प्राप्त और उल्लिखित महत्व के सामाजिक कर्त्तव्य को ‘ ऋण’ कहने में हमारे शास्त्रकारों का क्या हेतु था। कालिदास ने रघुवंश में कहा है, कि स्मृतिकारों की बतलाई हुई इस मर्यादा के अनुसार सूर्यवंशी राजा लोग चलते थे और जब बेटा राज करने योग्य हो जाता तब उसे गद्दी पर बिठला कर ( पहले से ही नहीं ) स्वयं गृहस्थाश्रम से निवृत होते थे[1] भागवत में लिखा है कि पहले दक्षप्रजापति के हर्यश्वसंज्ञक पुत्री की और जिस शबलाश्वसंज्ञक दूसरे पुत्रों को भी, उनके विवाह से पहले ही, नारद ने निवृत्ति मार्ग का उपदेश देकर भिक्षु बना डाला; इससे इस अशास्त्र और गर्ह्य व्यवहार के कारण नारद की निर्भर्त्सना करके दक्ष प्रजापति ने उन्हें शाप दिया[2]। इससे ज्ञात होता है, कि इस आश्रम व्यवसथा का मूल-हेतु यह था, कि अपना गार्हस्थ्य जीवन यथाशास्त्र पूरा कर गृहस्थी चलाने योग्य, लड़कों के, सयाने हो जाने पर, बुढ़ापे की निरर्थक आशाओं से उनकी उमंग के आड़े न आ निरा मोक्षपरायण ही मनुष्य स्वयं आनन्द पूर्वक संसार से निवृत्त हो जावे। इसी हेतु से विदुरनीति में धृतराष्ट्र से विदुर ने कहा है- कि उत्पाद्य पुत्राननृणांश्च कृत्वा वृत्तिं च तेभयोऽनुविधाय कांचित्। "गृहस्थाश्रम में पुत्र उत्पन्न कर, उन्हें कोई ऋण न छोड़ और उनकी जीविका के लिये कुछ थोड़ा सा प्रबन्ध कर, तथा सब लड़कियों को योग्य स्थानों में दे चुकने पर, वानप्रस्थ हो संन्यास लेने की इच्छा करे-"[3]। आज कल हमारे यहाँ साधारण लोगों की संसार सम्बधी समझ भी प्राय: विदुर के कथनानुसार ही है। तो भी कभी न कभी संसार को छोड़ देना ही मनुष्य मात्र का परम साध्य मानने के कारण, संसार के व्यवहारों की सिद्धि के लिये समृतिप्रणेताओं ने जो पहले तीन आश्रमों की श्रेयस्कर मर्यादा नियत कर दी थी, वह धीरे धीरे छूटने लगी; और यहाँ तक स्थित आ पहुँची कि यदि किसी को पैदा होते ही अथवा अल्प अवस्था में ही ज्ञान की प्राप्ति हो जावे, तो उसे इन तीन सीढि़यों पर चड़ने की आवशयकता नहीं है, वह एकदम संन्यास ले ले तो कोई हानि नहीं-‘ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेद्गगृहाद्वा वनाद्वा’[4]! इसी अभिप्राय से महाभारत के गोकापिलीय-संवाद में कपिल ने स्यूमरश्मि से कहा है- शरीरपक्ति: कर्माणि ज्ञानं तु परमा गति :। ‘’सारे कर्म शरीर के ( विषयासक्त्िारूप ) रोग निकाल फेकने के लिये हैं, ज्ञान ही सब में उत्तम है और अन्त की गति है; जब कर्म से शरीर का कषाय अथवा अज्ञान रूपी रोग नष्ट हो जाता है तब रस–ज्ञान की चाह उपजती है’’[6]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ( रघु. 7. 68 )। गी. र. 43
- ↑ भाग . 6. 5. 35-42
- ↑ मभा. उ. 36. 39
- ↑ जाबा. 4
- ↑ वेदान्तसूत्रों पर जो शाकंरभाष्य है,(3. 4. 26) उसमें यह श्लोक लिया गया है। वहाँ इसका पाठ इस प्रकार है:- ‘’कषायपक्ति: कर्माणि ज्ञानं तु परमा गति :। कषाये कर्मामि: पके ततो ज्ञानं प्रवर्तते।।‘’ महाभारत में हमें यह श्लोक जैसा मिला है, हमने यहाँ वैसा ही ले लिया है।
- ↑ शां. 269. 38
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