गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
ग्यारहवाँ प्रकरण
इसी प्रकार मोक्षधर्म में, पिगंलगीता में भी कहा है, कि ‘’नैराश्यं परमं सुखं’’ अथवा ‘’योऽसौ प्रणान्तिकौ रोगस्तां तृष्णां त्यजत: सुखम् ‘’-तृष्णारूप प्राणान्तक रोग छूटे बिना नहीं है[1]। जाबाल और बृहदारणयक उपनिषदों के वचनों के अतिरिक्त केवल और नारायणोपनिषद में वर्णन है, कि ‘’ न कर्मणा प्रजया धनेन त्यागेनैक अमृतत्वमानशु:’’’- कर्म से, प्रजा से अथवा धन से नहीं, किन्तु त्याग से ( या न्यास से ) कुद पुरुष मोक्ष प्राप्त करते हैं[2]। यदि गीता का यह सिद्धान्त है, कि ज्ञानी पुरुष को भी अन्त तक कर्म ही करते रहना चाहिये, तो अब बतलाना चाहिाये कि इन वचनो की व्यवस्था कैसी क्या लगाई जावे। इस शंका के होने से ही अर्जुन ने अठाहरवें अध्याय के आरम्भ में भगवान् से पूछा है कि ‘’तो अब मुझे अलग-अलग बतलाओ, कि संन्यास के मानी क्या है, और त्याग से क्या समझूँ’’[3]। यह देखने के पहले, कि भगवान् ने इस प्रश्न का क्या उत्तर दिया, स्मृतिग्रन्थों में प्रतिपादित इस आश्रम-मार्ग के अतिरिक्त एक दूसरे तुल्य बल के वैदिक मार्ग का भी यहाँ पर थोड़ा सा विचार करना आवश्यक है। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और अन्त में संन्यासी, इस प्रकार आश्रमों की इन चार चढ़ती हुई सीढि़यों के जीने को ही ‘स्मार्त’ अर्थात् ‘स्मृतिकारों का प्रतिपादन किया हुआ मार्ग’ कहते हैं। ‘कर्म कर’ और ‘ कर्म छोड़’-वेद की ऐसी जो दो प्रकार की आज्ञाएँ हैं, उनकी एकवाक्यता दिखलाने के लिये आयु के भेद के अनुसार आश्रमों की वयवस्था स्मृतिकर्त्ताओं ने की है; और कर्मों के स्वरूपत: संन्यास ही को यदि अन्तिम ध्येय मान लें, तो उस ध्येय की सिद्धि के लिये समृतिकारों के निर्दिष्ट रूप समझ कर अनुचित नहीं कह सकते। आयुष्य बिताने के लिये इस प्रकार चढ़ती हुई सीढि़यों की व्यवस्था से संसार के व्यवहार का लोप न हो कर यद्यपि वैदिक कर्म और औपनिषदिक ज्ञान का मेल हो जाता है; तथापि अन्य तीनों आश्रमों का अन्नदाता गृहस्थाश्रम ही रहने के कारण, मनुस्मृति और महाभारत में भी, अन्त में उसका ही महत्व स्पष्टतया स्वीकृत हुआ है- यथा मातरमाश्रित्य सर्वे जीवन्ति जन्तव:। ‘’ माता के ( पृथ्वी के ) आश्रय से जिस प्रकार सब जन्तु जीवित रहते हैं, उसी प्रकार गृहस्थाश्रम के आसरे अन्य आश्रम हैं[4]। मनु ने तो अन्यान्य आश्रमों को नदी और गृहस्थाश्रम को सागर कहा है[5]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शां. 174. 65 और 58
- ↑ कै.1. 2; नारा. 12. 3 और 78 देखो
- ↑ 18.1
- ↑ शां. 268. 6; और मनु. 3.77 देखो
- ↑ मनु.6.90; मभा. शां. 295. 39
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