गीता रहस्य -तिलक पृ. 235

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

पूर्ण आत्मज्ञान जब और जहाँ होगा, उसी क्षण में और उसी स्थान पर मोक्ष धरा हुआ है; क्योंकि मोक्ष तो आत्मा ही की मूल शुद्धावस्था है; वह कुछ निराली स्वतंत्र वस्तु या स्थल नहीं है। शिवगीता[1] में यह श्लोक है–

मोक्षस्य न हि वासोऽस्ति न ग्रामांतरमेव वा ।
अज्ञानहृदयग्रंथिनाशो मोक्ष इति स्मृत: ॥

अर्थात “मोक्ष कोई ऐसी वस्तु नहीं कि जो किसी एक स्थान में रखी हो, अथवा यह भी नहीं कि उसकी प्राप्ति के लिये किसी दूसरे गॉव या प्रदेश को जाना पड़े।“ इसी प्रकार अध्यात्माशास्त्र से निष्पन्न होने वाला यही अर्थ भगवद्गीता के “अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्”[2]– जिन्हें पूर्ण आत्मज्ञान हुआ है उन्हें ब्रह्मनिर्वाणरूपी मोक्ष आप ही आप प्राप्त हो जाता है, तथा “य: सदा मुक्त एव स:”[3] इन श्लोकों में वर्णित है; और “ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति”– जिसने ब्रह्म को जाना, वह ब्रह्म ही हो जाता है (मुं.3.2.9) इत्यादि उपनिषद- वाक्यों में भी वही अर्थ वर्णित है। मनुष्य के आत्मा की ज्ञान-दृष्टि से जो यह पूर्णावस्था होती है, उसी को ‘ब्रह्मभूत’[4]या ‘ब्राह्मी स्थिति’ कहते हैं,[5]; और स्थितप्रज्ञ(गी 2.55-72) भक्तिमान्(गी.12.13-20) या त्रिगुणातीत[6] पुरुषों के विषय में भगवद्गीता में जो वर्णन हैं, वे भी इसी अवस्था के हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 13.32
  2. गी. 5.26
  3. गी. 5.28
  4. गी. 18.54)
  5. गी. 2.72
  6. गी.14.22–27

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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