|
नवां प्रकरण
“पृथ्वी के समान वह इस बात का भेद बिलकुल नहीं जानता कि उत्तम की संगति करना चाहिये अथवा अधर्म का त्याग करना चाहिये; जैसे कृपालु प्राण मन में इस बात को नहीं सोचता कि राजा के शरीर में व्यापार करूँ और रंक का अपमान करूँ; जैसे जल यह भेद नहीं करता कि गौ की तृषा बुझाऊं और व्याघ्र के लिये विष बन कर उसका नाश करूँ; वैसे ही सब प्राणियों के विषय में जिसकी एक सी मित्रता है जो स्वयं कृपा की मूर्ति है, जो अहंकार का नाम तक नहीं जानता, जो अपने निज का कुछ नहीं समझता, जो सुख-दु:ख को नहीं पहचानता” इत्यादि[1]। अध्यात्म-विधा से जो कुछ अंत में प्राप्त होता है, वह यही है। उपर्युक्त विवेचन से विदित होगा, कि सारे मोक्षधर्म के मूलभूत अध्यात्म-ज्ञान की परम्परा हमारे यहाँ उपनिषदों से लगा कर ज्ञानेश्वर, तुकाराम, रामदास, कबीरदास, सूरदास, तुलसीदास इत्यादि आधुनिक साधु पुरुषों तक किस प्रकार अव्याहत चली आ रही है। परंतु उपनिषदों के भी पहले यानी अत्यंत प्राचीनकाल में ही हमारे देश में इस ज्ञान का प्रादुर्भाव हुआ था, और तब से क्रम क्रम से आगे उपनिषदों के विचारों की उन्नति होती चली गई है। यह बात पाठकों को भली-भाँति समझा देने के लिये ऋग्वेद का एक प्रसिद्ध सूक्त भाषांतर सहित यहाँ अंत में दिया गया है, जो कि उपनिषदांतर्गत ब्रह्मविद्या का आधारस्तम्भ है।
|
|