गीता रहस्य -तिलक पृ. 234

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

ऐसा आचरण जिस पुरुष में दिखाई न दे, उसे ‘कच्चा’ समझना चाहिये– अभी वह ब्रह्म-ज्ञानाग्नि में पूरा पक नहीं पाया है। सच्चे साधु और निरे वेदांत-शास्त्रियों में जो भेद है, वह यही है। और, इसी अभिप्राय से भगवद्गीता में ज्ञान का लक्षण बतलाते समय यहाँ नहीं कहा, कि “बाह्य सृष्टि के मूलतत्त्व को केवल बुद्धि से जान लेना” ज्ञान है; किंतु यहाँ कहा है कि सच्चा ज्ञान वही है जिससे “अमानित्व, क्षान्ति, आत्मनिग्रह, समबुद्धि” इत्यादि उदात्त मनोवृत्तियाँ जागृत हो जावें और जिससे चित्त की पूरी शुद्धता आचरण में सदैव वयक्‍त हो जावे[1]। जिसकी व्यवसायात्मक बुद्धि ज्ञान से आत्मनिष्ठ (अर्थात आत्म-अनात्मविचार में स्थिर) हो जाती है और जिसके मन को सर्व-भूतात्मैक्य का पूरा परिचय हो जाता है, उस पुरुष की वासनात्मक बुद्धि भी निस्सन्देह शुद्ध ही होती है। परंतु यह समझने के लिये कि किसकी बुद्धि कैसी है, उसके आचरण के सिवा दूसरा बाहरी साधन नहीं है; अतएव केवल पुस्तकों से प्राप्त कोरे ज्ञान-प्रसार के आधुनिक काल में इस बात पर विशेष ध्यान रहे, कि ‘ज्ञान’ या ‘समबुद्धि’ शब्द में ही शुद्ध (व्यवसायात्मक ) बुद्धि, शुद्ध वासना (वासनात्मक बुद्धि) और शुद्ध आचरण, इन तीनों शुद्ध बातों का समावेश किया जाता है।

ब्रह्म के विषय में कोरा वाक्पांडित्य दिखलाने वाले, और उसे सुनकर ‘वाह! वाह!!’ कहते हुये सिर हिलाने वाले, या किसी नाटक के दर्शकों के समान “एक बार फिर से– वंस मोर” कहने वाले बहुत होंगे[2]। परंतु जैसा कि ऊपर कह आये हैं, जो मनुष्य अंतर्बाह्य शुद्ध अर्थात साम्यशील हो गया हो, वही सच्चा आत्मनिष्ठ है और उसी को मुक्ति मिलती है, न कि निरे पन्डित को– फिर चाहे वह कैसा भी बहुश्रुत और बुद्धिमान क्यों न हो। उपनिषदों में स्पष्ट कहा है कि “नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया बहुना श्रुतेन”[3]; और इसी प्रकार तुकाराम महाराज भी कहते हैं– “यदि तू पंडित होगा, तो तू पुराण-कथा कहेगा; परंतु तू यह नही जान सकता कि ‘मैं’ कौन हूँ’ देखिये, हमारा ज्ञान कितना संकुचित है। ‘मुक्ति मिलती है’– ये शब्द सहज ही हमारे मुख से निकल पड़ते हैं! मानो यह मुक्ति आत्मा से कोई भिन्न वस्तु है! ब्रह्म और आत्मा की एकता का ज्ञान होने के पहले दृष्‍टा और दृश्य जगत में भेद था सही; परंतु हमारे अध्यात्मशास्त्र ने निश्चित कर रखा है, कि जब ब्रह्मात्मैक्य का पूरा ज्ञान हो जाता है तब आत्मा ब्रह्म में मिल जाता है, और ब्रह्मज्ञानी पुरुष आप ही ब्रह्मरूप हो जाता है; इस आध्यात्मिक अवस्था को ही ‘ब्रह्मनिर्वाण’ मोक्ष कहते हैं; यहाँ ब्रह्मनिर्वाण किसी से किसी को दिया नहीं जाता, यह कहीं दूसरे स्थान से आता नहीं, या इसकी प्राप्ति के लिये किसी अन्य लोक में जाने की भी आवश्यकता नहीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 13.7-11
  2. गी. 2.29; क.2.7
  3. क. 2.22; मुं 3.2.3

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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