गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
सातवां प्रकरण
जो कुछ होता जाता है वह सब प्रकृति ही का खेल है। यहाँ तक कि मन और बुद्धि भी प्रकृति के ही विकार हैं, इसलिये बुद्धि को जो ज्ञान होता है, वह भी प्रकृति के कार्यों का ही फल है। यह ज्ञान तीन प्रकार का होता है; जैसे सात्त्विक, राजस, और तामस[1]। जब बुद्धि को सात्त्विक ज्ञान प्राप्त होता है तब पुरुष को यह मालूम होने लगता है कि मैं प्रकृति से भिन्न हूँ। सत्त्व-रज-तमो-गुण प्रकृति के ही धर्म हैं, पुरुष के नहीं। पुरुष निर्गुण है और त्रिगुणात्मक प्रकृति उसका दर्पण है[2]। जब यह दर्पण स्वच्छ या निर्मल हो जाता है, अर्थात जब अपनी यह बुद्धि, जो प्रकृति का विकार है, सात्त्विक हो जाती है तब इस निर्मल दर्पण में पुरुष को अपना वास्तविक स्वरूप दिखने लगता है और उसे यह बोध हो जाता है कि मैं प्रकृति से भिन्न हूँ। उस समय यह प्रकृति लज्जित हो कर पुरुष के सामने नाचना, खेलना या जाल फैलाना बंद कर देती है। जब यह अवस्था प्राप्त हो जाती है तब पुरुष सब पाशों या जालों से मुक्त हो कर अपने स्वाभाविक कैवल्य पद को पहुँच जाता है। ‘कैवल्य’ शब्द का अर्थ केवलता, अकेलापन, या प्रकृति के साथ संयोग न होना। पुरुष की इस नैसर्गिक या स्वाभाविक स्थिति को ही सांख्यशास्त्र में मोक्ष(मुक्ति या छुटकारा) कहते हैं। इस अवस्था के विषय में सांख्य-वादियों ने एक बहुत ही नाजुक प्रश्न का विचार उपस्थित किया है। उनका प्रश्न है कि पुरुष प्रकृति को छोड़ देता है या प्रकृति पुरुष को छोड़ देती है? कुछ लोगों की समझ में यह प्रश्न वैसा ही निरर्थक प्रतीत होगा जैसे यह प्रश्न कि, दुल्हे के लिये दुलहिन ऊंची है या दुलहिन के लिये दुल्हा ठिंगना है। क्योंकि, जब दो वस्तुओं का एक दूसरे से वियोग होता है तब हम देखते हैं कि दोनों एक दूसरे को छोड़ देती हैं, इसलिये ऐसे प्रश्न का विचार करने से कुछ लाभ नहीं है, कि किसने किसको छोड़ दिया परन्तु, कुछ अधिक सोचने पर मालूम हो जायेगा कि सांख्य-वादियों का उक्त प्रश्न, उनकी दृष्टि से, अयोग्य नहीं है। सांख्यशास्त्र के अनुसार ‘पुरुष’ निर्गुण, अकर्ता और उदासीन है, इसलिये तत्त्व-दृष्टि से ‘‘छोड़ना’’ या ‘‘पकड़ना’’ क्रियाओं का कर्ता पुरुष नहीं हो सकता [3]। इसलिये सांख्य-वादी कहते हैं, कि प्रकृति ही ‘पुरुष’ को छोड़ दिया करती है, अर्थात वही ‘पुरुष’ से अपना छुटकारा या मुक्ति कर लेती है, क्योंकि कर्तत्त्व-धर्म ‘प्रकृति’ ही का है [4]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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