गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
सातवां प्रकरण
इसलिये, उन्होंने यह निश्चित सिद्धान्त किया है, कि प्रकृति और पुरुष को छोड़, इस सृष्टि का और कोई तीसरा मूल कारण नहीं है। इस प्रकार जब उन लोगों ने दो ही मूल तत्त्व निश्चित कर लिये तब उन्होंने अपने मत के अनुसार इस बात को भी सिद्ध कर दिया है कि इन दोनों मूल तत्त्वों से सृष्टि कैसे उत्पन्न हुई है। वे कहते हैं कि, यद्यपि निर्गुण पुरुष कुछ भी कर नहीं सकता, तथापि जब प्रकृति के साथ उसका संयोग होता है तब, जिस प्रकार गाय अपने बछड़े के लिये दूध देती है या लोहचुंबक के पास जाने से लोहे में आकर्षण शक्ति आ जाती है, उसी प्रकार मूल अव्यक्त प्रकृति अपने गुणों (सूक्ष्म और स्थूल) का व्यक्त जाला पुरुष के सामने फैलाने लगती है[1]। यद्यपि पुरुष सचेतन और ज्ञाता है, तथापि केवल या निर्गुण होने के कारण स्वयं कर्म करने के कोई साधन उसके पास नहीं है; और प्रकृति यद्यपि काम करने वाली है, तथापि जड़ या अचेतन होने के कारण वह नहीं जानती कि क्या करना चाहिये।इस प्रकार लंगड़े और अंधे की वह जोड़ी है; जैसे अंधे के कंधे पर लंगड़ा बैठे और ये दोनों एक दूसरे की सहायता से मार्ग चलने लगें, वैसे ही अचेतन प्रकृति और सचेतन पुरुष का संयोग हो जाने पर सृष्टि के सब कार्य आरंभ हो जाते हैं [2]। जिस प्रकार नाटक की रंगभूमि पर प्रेक्षकों के मनोरंजनार्थ एक ही नटी, कभी एक तो कभी दूसरा ही स्वांग बना कर नाचती रचती है; उसी प्रकार पुरुष के लाभ के लिये(पुरुषार्थ के लिये), यद्यपि वह कुछ भी पारितोषिक नहीं देता तो भी, यह प्रकृति सत्त्व-रज-तम गुणों की न्यूनाधिकता से अनेक रूप धारण करके उसके सामने लगातार नाचती रहती है [3]। प्रकृति के इस नाच को देख कर, मोह से भूल जाने के कारण या वृथाभिमान के कारण, जब तक पुरुष इस प्रकृति के कर्तव्य को स्वयं अपना ही कर्तव्य मानता रहता है और जब तक वह सुख-दुख के जाल में स्वयं अपने को फंसा रखता है, तब तक उसे मोक्ष या मुक्ति की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती [4]। परन्तु जिस समय पुरुष को यह ज्ञान हो जाय कि त्रिगुणात्मक प्रकृति भिन्न है और मैं भिन्न हूँ, उस समय वह मुक्त ही है [5]; क्योंकि, यथार्थ में, पुरुष न तो कर्ता है और न बंधा ही है-वह तो स्ववंत्र और निसर्गतः केवल या अकर्ता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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