गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
सातवां प्रकरण
सांख्यशास्त्र के अनुसार ‘पुरुष’ निर्गुण, अकर्ता और उदासीन है, इसलिये तत्त्व-दृष्टि से ‘‘छोड़ना’’ या ‘‘पकड़ना’’ क्रियाओं का कर्ता पुरुष नहीं हो सकता [1]। इसलिये सांख्य-वादी कहते हैं, कि प्रकृति ही ‘पुरुष’ को छोड़ दिया करती है, अर्थात वही ‘पुरुष’ से अपना छुटकारा या मुक्ति कर लेती है, क्योंकि कर्तत्त्व-धर्म ‘प्रकृति’ ही का है [2]। सारांश यह है कि, मुक्ति नाम की ऐसी कोई निराली अवस्था नहीं है जो ‘पुरुष’ को कहीं बाहर से प्राप्त हो जाती हो; अथवा यह कहिये कि वह ‘पुरुष’ की मूल और स्वाभाविक स्थिति से कोई भिन्न स्थिति भी नहीं है। प्रकृति और पुरुष में वैसा ही संबंध है जैसा कि घास के बाहरी छिलके और अंदर के गूदे में रहता है या जैसा पानी और उसमें रहने वाली मछली में। सामान्य पुरुष प्रकृति के गुणों से मोहित हो जाते हैं और अपनी इस स्वाभाविक भिन्नता को पहचान नहीं सकतेः इसी कारण वे संसार-चक्र में फंसे रहते हैं। परंतु, जो इस भिन्नता को पहचान लेता है, वह मुक्त ही है। महाभारत[3] में लिखा है कि ऐसे ही पुरुष को ‘‘ज्ञाता’’ या‘‘बुद्ध’’ और ‘‘कृतकृत्य’’ कहते हैं। गीता के इस वचन ‘‘एतद् बुद्ध्वा बुद्धिमान स्यात्’’ [4] में बुद्धिमान शब्द का भी यही अर्थ है। अध्यात्मशास्त्र की दृष्टि से मोक्ष का सच्चा स्वरूप भी यही है[5]। परन्तु सांख्य-वादियों की अपेक्षा अद्वैत वेदान्तियों का विशेष कथन यह है कि, आत्मा मूल ही में परब्रह्मस्वरूप है और जब वह अपने मूल स्वरूप को अर्थात परब्रह्म को पहचान लेता है तब वही उसकी मुक्ति है। वे लोग यह कारण नहीं बतलाते कि पुरुष निसर्गतः ‘केवल’ है। सांख्य और वेदान्त का यह भेद अगले प्रकरण में स्पष्ट रीति से बतलाया जायेगा। यद्यपि अद्वैत वेदान्तियों को सांख्य-वादियों की यह बात मान्य है, कि पुरुष (आत्मा) निर्गुण, उदासीन और अकर्ता है; तथापि वे लोग, सांख्यशास्त्र की ‘पुरुष’ संबंधी इस दूसरी कल्पना को नहीं मानते कि एक ही प्रकृति को देखने वाले (साथी) स्वतंत्र पुरुष मूल में ही असंख्य हैं [6]। वेदान्तियों का कहना है कि उपाधि-भेद के कारण सब जीव भिन्न भिन्न मालूम होते हैं, परंतु वस्तुतः सब ब्रह्म ही है। सांख्य-वादियों का मत है कि, जब हम देखते हैं कि प्रत्येक मनुष्य का जन्म,मृत्यु और जीवन अलग-अलग है, और जब इस जगत् में हम यह भेद पाते हैं कि कोई सुखी है तो कोई दुःखी है, तब मानना पड़ता है कि प्रत्येक आत्मा या पुरुष मूल से ही भिन्न है और उनकी संख्या भी अनंत है [7]। केवल प्रकृति और पुरुष ही सब सृष्टि के मूलतत्त्व हैं सही; परंतु उनमें से पुरुष शब्द में, सांख्य-वादियों के मतानुसार 'असंख्य पुरुषों के समुदाय‘ का समावेश होता है। इन असंख्य पुरुषों के और त्रिगुणात्मक प्रकृति के संयोग से सृष्टि का सब व्यवहार हो रहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गी.13.31,32
- ↑ सां.का. 62 और गी.13.34
- ↑ शां.194,58;248.11; और 306-308
- ↑ गी.15.20
- ↑ वे.सू.शा.भा.1.1.4
- ↑ गी.8.4;13.20-22; मभा.शां. 351;और वेसू. शांभा.2.1.1 देखो
- ↑ सां. का. 18
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