गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
8. भगवान् और संभूति–शक्ति
उसने अपने हृदय की भक्ति, इच्छा-शक्ति-संकल्प के समर्पण तथा बुद्धि की समझ के साथ इस सत्य को ग्रहण कर लिया है। वह इस ज्ञान में रहते हुए तथा इस आत्म-समर्पण के साथ दिव्य यंत्र के रूप में कार्य करने के लिये तैयार हो चुका है। पर अब एक गभीरतर अविच्छिन्न आध्यात्मिक उपलब्धि की इच्छा उसके हृदय तथा उसकी संकल्पशक्ति में जाग उठी है। यह एक ऐसा सत्य है जो केवल परम आत्मा को ही अपने आत्म-ज्ञान में प्रत्यक्ष होता है,-क्योंकि अर्जुन कहता है, ‘‘हे पुरुषोत्तम, केवल आप ही अपने-आपको अपने-आपसे जानते हैं। यह एक ऐसा ज्ञान है जो आध्यात्मिक तादात्म्य द्वारा प्राप्त होता है और प्राकृत मनुष्य का हृदय, संकल्प-शक्ति तथा बुद्धि बिना सहायता के, अपनी ही चेष्टा के द्वारा इसतक नहीं पहुँच सकते। ये तो केवल उन अपूर्ण मानसिक प्रतिबिम्बों को ही प्राप्त कर सकते हैं जो इसे प्रकाशित करने से कहीं अधिक छिपाते तथा विकृत करते हैं। यह एक गुप्त ज्ञान है जो मनुष्य को उन ऋषियों से सुनना होगा जिन्होंने इस सत्य का साक्षात्कार किया है, इसकी वाणी को श्रवण किया है और अंतरात्मा तथा आत्मा में इसके साथ एकात्माता प्राप्त की है। ‘‘सभी ऋषि नारद,असति, देवता, व्यास आदि देवर्षि आपके विषय में यही कहते हैं।’’[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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