गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
8. भगवान् और संभूति–शक्ति
भगवत्स्वरूप श्रीगुरु से प्राप्त इससे पूर्ण ज्ञान को अर्जुन ग्रहण करता है। उसका मन सब संशयों से ऊपर उठ चुका है; उसका हृदय जगत् के बाह्य रूप और उसके मोहक-भ्रामक दृश्य से हटकर अपने परम अर्थ और मूल स्वरूप तथा उसकी अंतःस्थ वास्तविकताओं को प्राप्त हो चुका है, शोक-संताप से छूटकर भगवदीय दर्शन के अनिर्वचनीय आनंद के संपर्क में आ चुका है। इस ज्ञान को ग्रहण करते हुए वह जिन शब्दों का प्रयोग करता है उनसे फिर एक बार विशेष बल और आग्रह के साथ यह बात सामने आती है कि यह ज्ञान वह ज्ञान है जो संपूर्ण है, सब कुछ इसमें आ गया है, कोई बात बची नहीं रही। अर्जुन सर्वप्रथम उन्हें, जो उसे यह ज्ञान दान कर रहे हैं, अवतार मानता है अर्थात् उन्हें मुनष्य-तन में परब्रह्म परमेश्वर-रूप से ग्रहण करता है, उन्हें वह परं ब्रह्म, परं धाम मनाता है जिसके अंदर जीव, इस बाह्य जगत् और इस अंशरूप भूतभाव से निकलकर अपने उस मूल स्वरूप को प्राप्त होने पर, रह सकता है। अर्जुन उन्हें वह परमं पवित्रम् जानता है जो मुक्त स्थिति की परमा पवित्रता है-वह परम पावन स्थिति जीव को तब प्राप्त होती है जब वह अपने अहंकार को मिटाकर अपने आत्मस्वरूप की स्थिर अचल आर निर्व्यष्टिक ब्राह्यी स्थिति में पहुँचता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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