गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
पाँचवां प्रकरण
जर्मन पंडित शोपेनहर का भी ऐसा ही मत है जिसे सिद्धि करने के लिये उस ने एक विचित्र दृष्टान्त दिया है। वह कहता है कि मनुष्य की समस्त सुखेच्छाओं में से जितनी सुखेच्छाएं सफल होती हैं उसी परिमाण से हम उसे सुखी समझते हैं; और जब सुखेच्छाओं की अपेक्षा सुखोपभोग कम हो जाते हैं तब कहा जाता है कि वह मनुष्य उस परिमाण से दुःखी है। इस परिमाण को गणित की रीति से समझना हो तो सुखोपभोग को सुखेच्छा से भाग देना चाहिये और अपूर्णाक के रूप में सुखोपभोग/ सुखेच्छा ऐसा लिखना चाहिये। परन्तु यह अपूर्णांक है भी विलक्षण; क्योंकि इसका हर (अर्थात् सुखेच्छा), अंश(अर्थात् सुखोपभोग) की अपेक्षा, हमेशा अधिकाधिक बढ़ता ही रहता है। यदि यह अपूर्णांक पहले 1/2 हो, और यदि आगे उसका अंश1 से 3 हो जाये, तो उसका हर 2 से 10 हो जायेगा अर्थात वही अपूर्णांक 3/10 हो जाता है। तात्पर्य यह है कि यदि अंश तिगुना बढ़ता है तो हर पांच गुना बढ़ जाता है, जिसका फल यह होता है कि वह अपूर्णांक पूर्णता की और न जा कर अधिकाधिक अपूर्णता की ओर ही चला जाता है। इसका मतलब यही है कि कोई मनुष्य कितना ही सुखोपभोग करे, उसकी सुखेच्छा दिनोंदिन बढ़ती ही जाती है, जिससे यह आशा करना व्यर्थ है कि मनुष्य पूर्ण सुखी हो सकता है। प्राचीन काल में कितना सुख था, इसका विचार करते समय हम लोग इस अपूर्णांक के अंश का तो पूर्ण ध्यान रखते हैं, परन्तु इस बात को भूल जाते हैं कि अंश की अपेक्षा हर कितना बढ़ जाता है। किन्तु जब हमें सुख-दुःखों की मात्रा का ही निर्णय करना है तो हमें किसी काल का विचार न करके सिर्फ यही देखना चाहिये कि उक्त अपूर्णांक के अंश और हर में कैसा संबंध है। फिर हमें आप ही आप मालूम हो जायेगा कि इस अपूर्णांक का पूर्ण होना असंभव है। “न जातु कामः कामानां’’ इस मनु वचन का[1] भी यही अर्थ है। संभव है कि बहुतेरों को सुख-दुःख नापने की गणित की यह रीति पसन्द न हो, क्योंकि यह उष्णतामापक यंत्र के समान कोई निश्चित साधन नहीं है। परन्तु इस युक्तिवाद से प्रगट हो जाता है किइस बात को सिद्ध करने के लिये भी कोई निश्चित साधन नहीं, कि “संसार में सुख ही अधिक है।’’ यह आपत्ति दोनों पक्षों के लिये समान ही है, इसलिये उक्त प्रतिपादन के साधारण सिद्धान्त में- अर्थात उस सिद्धांत में जो सुखोपयोग की अपेक्षा सुखेच्छा की अमर्यादित वृद्धि से निष्पन्न होता है- यह आपत्ति कुछ बाधा नहीं डाल सकती। धर्म-ग्रंथों में तथा संसार के इतिहास में इस सिद्धान्त के पोषक अनेक उदाहरण मिलते हैं। किसी जमाने में स्पेन देश में मुसलमानों का राज्य था। वहाँ तीसरा अब्दुल रहमान[2] नामक एक बहुत ही न्यायी और पराक्रमी बादशाह हो गया था। उसने यह देखने के लिये, कि मेरे दिन कैसे कटते है, एक रोजनामचा बनाया था; जिसे देखने से अन्त में उसे यह ज्ञात हुआ कि पचास वर्ष के शासन-काल में उसके केवल चौदह दिन सुखपूर्वक बीते! किसी ने हिसाब करके बतलाया है कि संसार भर के विशेषतः यूरोप के प्राचीन और अर्वाचीन सभी- तत्त्वज्ञानियों के मतों को देखो तो यही मालूम होगा कि उनमें से प्रायः आधे लोग संसार को दुःखमय कहते हैं और प्रायः आधे उसे सुखमय कहते हैं। अर्थात संसार को सुखमय तथा दुःखमय कहने वालों की संख्या प्रायः बराबर है[3]। यदि इस तुल्य संख्या में हिंदु तत्त्वज्ञों के मतों को जोड़ दें तो कहना नहीं होगा कि संसार को दुःखमय मानने वालों की संख्या ही अधिक हो जायेगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2.94
- ↑ Moors in Spain’s, p. 128 ( Story of the Nations Series ).
- ↑ Maomillan’s Promotion of Happiness, p. 26.
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