गीता रहस्य -तिलक पृ. 96

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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पाँचवां प्रकरण

विटेलियस नामक एक रोमन बादशाह था। कहते हैं कि वह, जिह्वा का सुख हमेशा पाने के लिये, भोजन करने पर किसी औषधि के द्वारा कै कर डालता था और प्रतिदिन अनेक बार भोजन किया करता था! परंतु, अंत में पछताने वाले ययाति राजा की कथा, इससे भी अधिक शिक्षादायक है। यह राजा, शुक्राचार्य के शाप से, बुड्ढा हो गया था;परंतु उन्हीं की कृपा से इसको यह सहूलियत भी हो गई थी, कि अपना बुढ़ापा किसी को दे कर इसके पलटे में उसकी जवानी ले ले। तब इसने अपने पुरु नामक बेटे की तरुणावस्था मांग ली और सौ दो सौ नहीं पूरे एक हजार वर्ष तक सब दुनिया के सारे पदार्थ एक मनुष्य की भी सुख- वासना को तृप्त करने के लिये पर्याप्‍त नहीं है। तब इसके मुख से यही उद्गार निकल पड़ा किः-

न् जातु कामः कामानां उपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवत्‍मेंव भूय एवाभिवर्धते ।।

अर्थात् “सुखों के उपभोग से विषय-वासना की तृप्त तो होती ही नहीं, किन्तु विषय-वासना दिनोंदिन उसी प्रकार बढ़ती जाती है जैसे अग्नि की ज्वाला हवन-पदार्थो से बढ़ती है’’ [1]। यही श्लोक मनुस्मृति में भी पाया जाता है।[2]। तात्पर्य यह है, कि सुख के साधन चाहे जितने उपलब्ध हों, तो भी इन्द्रियों की इच्छा उत्तरोत्तर बढ़ती ही जाती है; इसलिये केवल सुखोपयोग से सुख की इच्छा कभी तृप्त नहीं हो सकती, उसको रोकने या दबाने के लिये कुछ अन्य उपाय अवश्य ही करना पड़ता है। यह तत्त्व हमारे सभी धर्म- ग्रंथकारों को पूर्णतया मान्य है और इसीलिये उनका प्रथम उपदेश यह है कि प्रत्येक मनुष्य को अपने कामोपभोग की मर्यादा बांध लेनी चाहिये। जो लोग कहा करते हैं कि इस संसार में परम साध्य केवल विषयोपभोग ही है, वे यदि उक्त अनुभूत सिद्धांत पर थोड़ा भी ध्यान दें, तो उन्हें अपने मन की निस्सारता तुरंत ही मालूम हो जायेगी। वैदिक धर्म का यह सिद्धांत बौद्धधर्म में भी पाया जाता है; और, ययाति राजा के सदृश, मान्धाता नामक पौराणिक राजा ने भी मरते समय कहा हैः-[3]

न् कहापणवस्सेन तित्ति कामेसु विज्जति । अपि दिब्बेसु कामसेु रतिं सो नाधिगच्छति ।।

“कार्षापण नामक महामूल्यवान सिक्के की यदि वर्षा होने लगे तो भी काम-वासना की तित्त्‍िा अर्थात् तृप्ति नहीं होती, और स्वर्ग का भी सुख मिलने पर की पुरुष की कामेच्छा पूरी नहीं होती।’’ यह वर्णन धम्मपद [4] नामक बौद्ध ग्रंथ में है। इससे कहा जा सकता है कि विषयोपभोग रूपी सुख की पूर्ति कभी हो नहीं सकती और इसीलिये हर एक मनुष्य को हमेशा ऐसा मालूम होता है कि “मैं’ दुःखी हूं’’। मनुष्यों की इस स्थिति को विचारने से यही सिद्धांत स्थिर करना पड़ता है जो महाभारत [5]में कहा गया हैः-

सुखाद्वहुतरं दुःखं जीविते नास्ति संशयः ।।

अर्थात् “इस जीवन में यानि संसार में सुख की अपेक्षा दुःख ही अधिक है।’’ यही सिद्धांत साधु तुकाराम ने इस प्रकार कहा हैः- “सुख देखो तो राई बराबर है और दुःख पर्वत के समान है।’’ उपनिषत्कारों का भी सिद्धांत ऐसा ही है मैत्रयु. [6]। गीता [7] में भी कहा गया है कि मनुष्य का जन्म अशाश्वत और “दुःखों का घर’’ है तथा यह संसार अनित्य और “सुखरहित’’ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. म.भा.आ.75.49
  2. मनु. 2.94
  3. गी. र. 14
  4. 186,18.7
  5. शा. 205,330.16
  6. 1.2-4
  7. 8.15 और 9.33

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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