गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
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पाँचवां प्रकरण
संसार के सुख-दुःखों के उक्त विवेचन को सुन कर कोई संन्यासमार्गीय पुरुष कह सकता है, कि यद्यपि तुम इस सिद्धान्त को नहीं मानते कि “सुख कोई सच्चा पदार्थ नहीं है; फलतः सब तृष्णात्मक कर्मों को छोड़े बिना शान्ति नहीं मिल सकती;’’ तथापि तुम्हारे ही कथनानुसार यह बात सिद्ध है कि तृष्णा से असंतोष और असंतोष से दुःख उत्पन्न होता है; तब ऐसी अवस्था में यह कह देने में क्या हर्ज है, कि इस असंतोष को दूर करने के लिये, मनुष्य को अपनी सारी तृष्णाओं का और उन्हीं के साथ सब सांसारिक कर्मों का भी त्याग करके सदा सन्तुष्ट ही रहना चाहिये- फिर तुम्हें इस बात का विचार नहीं करना चाहिये कि उन कर्मों को तुम परोपकार के लिये करना चाहते हो या स्वार्थ के लिये। महाभारत[1] में भी कहा हैं कि “असंतोषस्य नास्त्यन्तस्तुष्टिस्तु परमं सुखम्’’ अर्थात असंतोष का अन्त नहीं है और संतोष ही परम सुख है। जैन और बौद्ध धर्मों की नींव भी इसी तत्त्व पर डाली गई है; तथा पश्चिमी देशो में शोपेनहर[2] ने अर्वाचीन काल में ही इसी मत का प्रतिपादन किया है। परंतु इसके विरुद्ध यह प्रश्न भी किया जा सकता है कि, जिह्वा से कभी कभी गालियां वगैरह अपशब्दों का उच्चारण करना पड़ता है, तो क्या जीभ को ही समूल काट कर फेंक देना चाहिये? अग्नि से कभी कभी मकान जल जाते हैं तो क्या लोगों ने अग्नि का सर्वथा त्याग ही कर दिया है या उन्होंने भोजन बनाना ही छोड़ दिया है? अग्नि की बात कौन कहे, जब हम विद्युत- शक्ति को भी मर्यादा में रख कर उसको नित्य व्यवहार के उपयोग में लाते हैं, तो उसी तरह तृष्णा और असन्तोष की भी सुव्यवस्थित मर्यादा बांधना कुछ असंभव नहीं है। हां; यदि असन्तोष सर्वाष में और सभी समय हानिकारक होता, तो बात दूसरी थी; परंतु विचार करने से मालूम होगा कि सचमुच बात ऐसी है नहीं। असंतोष का यह अर्थ बिलकुल नहीं कि, किसी चीज को पाने के लिये रात दिन हाय हाय करते रहें, रोते रहें या न मिलने पर सिर्फ शिकायत ही किया करें। ऐसे असन्तोष को शस्त्रकारों ने भी निन्द्य माना है। परन्तु उस इच्छा का मूलभूत असंतोष कभी निन्दनीय नहीं कहा जा सकता जो यह कहे- कि तु अपनी वर्तमान स्थिति में ही पड़े पडे सड़ते मत रहो, किंतु उसमें यथाशक्ति शांत और समचित से अधिकाधिक सुधार करते जाओ तथा शक्ति के अनुसार उसे उत्तम अवस्था में ले जाने का प्रयत्न करो। जो समाज चार वर्णो में विभक्त है उसमें ब्राहाणों ने ज्ञान की, क्षत्रियों ने ऐश्वर्य की और वैश्योंने धन-धान्य की उक्त प्रकार की इच्छा या वासना छोड़ दी तो कहना नहीं होगा कि वह समाज शीघ्र ही अधोगति में पहुँच जायेगा। इसी अभिप्राय को मन में रखकर व्यासजी ने [3] युधिष्ठिर से कहा है कि “यज्ञो विद्या समुत्थानमसंतोषः श्रियं प्रति’’ अर्थात यज्ञ, विद्या, उद्योग और ऐश्वर्य के विषय में असंतोष (रखना) क्षत्रिय के गुण हैं। इसी तरह विदुला ने भी अपने पुत्र को उपदेश करते समय [4] कहा है कि “सन्तोषो वै श्रियं हन्ति’’ अर्थात् संतोष से ऐश्वर्य का नाश होता है; और किसी अन्य अवसर पर एक वाक्य [5] में यह भी कहा गया है कि “असन्तोषः श्रियो मूलं’’ अर्थात असन्तोष ही ऐश्वर्य का मूल है।[6] |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वन. 215.22
- ↑ Schopenhauers’s Word as Will and Representation, Vol. 2 Chap. 46. संसार के दुःखमयत्व का, शोपेनहर कृत, वर्णन अत्यन्त ही सरस है। मूल ग्रंथ जर्मन भाषा में है और उसका भाषान्तर अंग्रेजी में भी हो चुका है।
- ↑ शा. 23.9
- ↑ मभा. उ. 132.33
- ↑ मभा. सभा. 55.11
- ↑ Cf. “ Unhappiness is the cause of process.” Dr. Paul Carus’ The Ethical Problem, p. 251 ( 2nd Ed. ).
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