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पहला प्रकरण
अर्थात हे राजा! यतियों अर्थात संन्यासियों के निवृति मार्ग का धर्म भी तुझे पहले भगवद्गीता में संक्षिप्त रीति से भागवत धर्म के साथ बतला दिया गया है। परन्तु यद्यपि गीता में प्रवृति धर्म के साथ ही यतियों का निवृति धर्म भी बतलाया गया है, तथापि मनु-इक्ष्वाकु इत्यादि गीता धर्म की जो परंपरा गीता में दी गई है वह यति धर्म को लागू नहीं हो सकती,वह केवल भागवत धर्म ही की परंपरा से मिलती है। सारांश यह है कि उपर्युक्त वचनों से महाभारतकार का यही अभिप्राय जान पड़ता है कि गीता में अर्जुन को जो उपदेश किया गया है वह विशेष करके मनु-इक्ष्वाकु इत्यादि परंपरा से चले हुए, प्रवृति-विषय का भागवत धर्म ही का है; और उसमें निवृति-विषय का यति धर्म का जो निरूपण पाया जाता है वह केवल आनुसांगिक है।
पृथु, प्रियव्रत और प्रल्हाद आदि निरूपण पाया जाता है वह केवल आनुसांगिक है तथा भागवत में दिये गये निष्काम कर्म के वर्णनों से[1] यह भली-भाँति मालूम हो जाता है। कि महाभारत का प्रवृति-विषय का नारायणीय धर्म और भागवत पुराण का भागवत धर्म,ये दोनों,आदि में एक ही है। परन्तु भागवत पुराण का मुख्य उद्देश यह नहीं है कि वह भागवत धर्म के कर्म युक्त-प्रवृति तत्त्व का समर्थन करे। यह समर्थन, महाभारत में और विशेष करके गीता में किया गया है। परन्तु इस समर्थन के समय भागवत धर्मीय भक्ति का यथोचित रहस्य दिखलाना व्यास जी भूल गये थे।
इसलिये भागवत के आरंभ के अध्यायों में लिखा है कि[2] बिना भक्ति के केवल निष्काम कर्म व्यर्थ है यह सोच कर, और महाभारत की उक्त न्यूनता को पूर्ण करने के लिये ही,भागवत पुराण की रचना पीछे से की गई है। इससे भागवत पुराण का मुख्य उद्देश स्पष्ट रीति से मालूम हो सकता है। यही कारण है कि भागवत में अनेक प्रकार की हरि कथा कह कर भागवत धर्म की भगवद् भक्ति के माहात्म्य का जैसा विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है वैसा भागवत धर्म के कर्म-विषय के अंगों का विवेचन उसमें नहीं किया गया है वैसा भागवत धर्म के कर्म विषयक अंगों को विवेचन उसमें नहीं किया गया है।
अधिक क्या, भागवतकार का यहाँ तक कहना है, कि बिना भक्ति के सब कर्म योग वृथा है।[3] अतएव गीता के तात्पर्य का निश्चय करने में,जिस महाभारत में गीता कही गई है उसी के नारायणीयोपाख्यान का जैसा उपयोग हो सकता है वैसा, भागवत-धर्मीय होने पर भी,भागवत पुराण का उपयोग नहीं हो सकता,क्योंकि वह केवल भक्ति प्रधान है। यदि उसका कुछ उपयोग किया भी जाय तो इस बात पर भी ध्यान देना पड़ेगा कि महाभारत और भागवत पुराण के उद्देश और रचना-काल भिन्न भिन्न हैं। निवृति विषय का यति धर्म और प्रवृति विषय का भागवत धर्म का मूल स्वरूप क्या है। इन दोनों में यह भेद क्यों है। मूल भागवत धर्म इस समय किस स्वरूप से प्रचलित है इत्यादि प्रश्नों का विचार आगे चल कर किया जाएगा। यह मालूम हो गया कि स्वयं महाभारतकार के मतानुसार गीता का क्या तात्पर्य है।
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