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आठवां प्रकरण
इसी मत को उत्क्रान्ति-वाद् या विकास-सिद्धान्त कहते हैं। जब यह सिद्धान्त पश्चिमी राष्ट्रों में, गत शताब्दी में पहले पहल ढूँढ़ निकाला गया, तब वहाँ बड़ी खलबली मच गई थी। ईसाई-धर्म-पुस्तकों में यह वर्णन है कि, ईश्वर ने पञ्चमहाभूतों को और जंगम वर्ग के प्रत्येक प्राणी की जाति को भिन्न-भिन्न समय पर पृथक्-पृथक् और स्वतन्त्र निर्माण किया है; और इसी मत को, उत्क्रान्ति-वाद के पहले, अब ईसाई लोग सत्य मानते थे। अतएव, जब ईसाई धर्म का उक्त सिद्धान्त उत्क्रांति-वाद से असत्य ठहराया जाने लगा, तब उत्क्रान्ति-वादियों पर खूब जोर से आक्रमण और कटाक्ष होने लगे। ये कटाक्ष आज कल भी न्यूनाधिक होते ही रहते हैं। तथापि, शास्त्रीय सत्य में अधिक शक्ति होने के कारण, सृष्टि-उत्पत्ति के संबंध में अब विद्वानों को उत्क्रान्ति मत ही आज कल अधिक ग्राह्य होने लगा है। इस मत का सारांश यह हैः-सूर्यमाला में पहले कुछ एक ही सूक्ष्म द्रव्य था; उसकी गति अथवा उष्णता का परिणाम घटता गया; तब उक्त द्रव्य का अधिकाधिक संकोच होने लगा और पृथ्वी समेत सब ग्रह क्रमशः उत्पन्न हुए; अंत में जो शेष अंश बचा, वही सूर्य है।
पृथ्वी का भी, सूर्य के सदृश, पहले एक उष्ण गोला था; परन्तु ज्यों-ज्यों उसकी उष्णता कम होती गई त्यों-त्यों मूल द्रव्यों में से कुछ द्रव्य पतले और कुछ घने हो गये; इस प्रकार पृथ्वी के ऊपर की हवा और पानी तथा उसके नीचे का पृथ्वी का जड़ गोला-ये तीन पदार्थ बने; और इसके बाद, इन तीनों के मिश्रण अथवा संयोग से सब सजीव तथा निर्जीव सृष्टि उत्पन्न हुई है।
डार्विन प्रभृति पंडितों ने यह प्रतिपादन किया है, कि इसी तरह मनुष्य भी छोटे कीड़े से बढ़ते-बढ़ते अपनी वर्तमान अवस्था में आ पहुँचा है। परन्तु अब तक आधिभौतिक-वादियों में और अध्यात्म-वादियों में इस बात पर बहुत मतभेद है, कि इस सारी सृष्टि के मूल में आत्मा जैसे किसी भिन्न और स्वतंत्र तत्त्व को मानना चाहिये या नहीं। हेकल के सदृश कुछ पंडित यह मान कर, कि जड़ पदार्थों से ही बढ़ते-बढ़ते आत्मा और चैतन्य की उत्पत्ति हुई, जड़ाद्वैत का प्रतिपादन करते हैं; और इसके उल्टा कान्ट सरीखे अध्यात्माज्ञानियों का यह कथन है कि, हमें सृष्टि का जो ज्ञान होता है वह हमारी आत्मा के एकीकरण-व्यापार का फल है इसलिये आत्मा को एक स्वतंत्र तत्त्व मानना ही पड़ता है।
क्योंकि यह कहना- कि जो आत्मा बाह्य सृष्टि का ज्ञाता है वह उसी सृष्टि का एक भाग है अथवा उस सृष्टि ही से वह उत्पन्न हुआ है तर्क दृष्टि से ठीक वैसा ही असमंजस या भ्रामक प्रतीत होगा जैसे यह उक्ति, कि हम स्वयं अपने ही कंधे पर बैठ सकते हैं। यही कारण है कि सांख्यशास्त्र में प्रकृति और पुरुष ये दो स्वतंत्र तत्त्व माने गये हैं। सारांश यह है कि, आधिभौतिक सृष्टि-ज्ञान चाहे जितना बढ़ गया हो तथापि अब तक पश्चिमी देशों में बहुतेरे बड़े-बड़े पंडित यही प्रतिपादन किया करते हैं, कि सृष्टि के मूल तत्त्व के स्वरूप का विवेचन भिन्न पद्धति ही से किया जाना चाहिये। परंतु, यदि केवल इतना ही विचार किया जाय, कि एक जड़ प्रकृति से आगे सब व्यक्त पदार्थ किस क्रम से बने हैं तो पाठकों को मालूम हो जायेगा कि पश्चिमी उत्क्रान्ति-मत में और सांख्यशास्त्र में वर्णित प्रकृति के कार्य-संबंधी तत्त्वों में कोई विशेष अन्तर नहीं है।
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