गीता रहस्य -तिलक पृ. 158

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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आठवां प्रकरण

क्योंकि इस मुख्य सिद्धान्त से दोनों सहमत हैं कि अव्यक्त, सूक्ष्म और एक ही मूल प्रकृति से क्रमशः ( सूक्ष्म और स्थूल ) विविध तथा व्यक्त सृष्टि निर्मित हुई है। परन्तु अब आधिभौतिक शास्त्रों के ज्ञान की खूब वृद्धि हो जाने के कारण, सांख्य-वादियों के ‘सत्त्व, रज, तम’ इन तीन गुणों के बदले, आधुनिक सृष्टि-शास्त्रज्ञों ने गति, उष्णता और आकर्षण-शक्ति को प्रधान गुण मान रखा है। यह बात सच है, कि ‘सत्त्व, रज, तम’ गुणों की न्यूनाधिकता के परिणम की अपेक्षा उष्णता अथवा आकर्षण-शक्ति की न्यूनाधिकता की बात आधिभौतिक शास्त्र की दृष्टि से सफलतापूर्वक समझ में आ जाती है। तथापि, गुणों के विकास का अथवा गुणोत्कर्ष का जो यह तत्त्व है, कि ‘‘गुणा गुणेषु वर्तन्ते" [1], वह दोनों ओर समान ही है। सांख्य-शास्त्रज्ञों का कथन है कि, जिस तरह मोड़दार पंखे को धीरे-धीरे खोलते हैं, उसी तरह सत्त्व-रज-तम की साम्यावस्था में रहने वाली प्रकृति की तह जब धीरे-धीरे खुलने लगती है, तब सब व्यक्त सृष्टि निर्मित होती है-इस कथन में और उत्क्रान्ति-वाद में वस्तुतः कुछ भेद नहीं है। तथापि, यह भेद तात्विक धर्म-दृष्टि से ध्यान में रखने योग्य है कि, ईसाई धर्म के समान गुणोत्कर्ष तत्त्व का अनादर न करते हुए, गीता में और अंशतः उपनिषद् आदि वैदिक ग्रन्थों में भी, अद्वैत वेदान्त के साथ ही साथ, बिना किसी विरोध के, गुणोत्कर्ष-वाद स्वीकार किया गया है।

अब देखना चाहिये कि प्रकृति के विकास-क्रम के विषय में सांख्य-शास्त्रकारों का क्या कथन है। इस क्रम ही को गुणोत्कर्ष अथवा गुणपरिणाम-वाद कहते हैं। यह बतलाने की आवश्यकता नहीं कि, कुछ काम आरंभ करने के पहले मनुष्य उसे अपनी बुद्धि से निश्चित कर लेता है, अथवा पहले काम करने की बुद्धि या इच्छा उसमें उत्पन्न हुआ करती है। उपनिषदों में भी इस प्रकार का वर्णन है कि, आरंभ में मूल परमात्मा को यह बुद्धि या इच्छा हुई कि हमें अनेक होना चाहिये- ‘बहु स्यां प्रजायेय’ -और इसके बाद सृष्टि उत्पन्न हुई [2]। इसी न्याय के अनुसार अव्यक्त प्रकृति भी अपनी साम्यावस्था को भंग करके व्यक्त सृष्टि के निर्माण करने का निश्चय पहले कर लिया करती है। अतएव, सांख्यों ने यह निश्चित किया है, कि प्रकृति में ‘व्यवसायात्मिक बुद्धि’ का गुण पहले उत्पन्न हुआ करता है। सांराश यह है कि, जिस प्रकार मनुष्य को पहले कुछ काम करने की इच्छा या बुद्धि हुआ करती है, उसी प्रकार प्रकृति को भी अपना विस्तार करने या पसारा पसारने की बुद्धि पहले हुआ करती है।

परन्तु इन दोनों में बड़ा भारी अन्तर यह है, कि जिस मनुष्य-प्राणी सचेतन होने के कारण, अर्थात् उसमें प्रकृति की बुद्धि के साथ सचेतन पुरुष का ( आत्मा का ) संयोग हो जाने के कारण, वह स्वयं अपनी व्यवसायात्मक बुद्धि को जान सकता है; और, प्रकृति स्वयं अचेतन अर्थात् जड़ है इसलिये उसको अपनी बुद्धि का कुछ ज्ञान नहीं रहता। यह अन्तर, पुरुष के संयोग से प्रकृति का गुण नहीं है। अर्वाचीन आधिभौतिक सृष्टि-शास्त्रज्ञ भी अब कहने लगे हैं, कि यदि यह न माना जाय कि मानवी इच्छा की बराबरी करने वाली किंतु अस्वयंवेद्य शक्ति जड़ पदार्थों में भी रहती है, तो गुरुत्वाकर्षण अथवा रसायन-क्रिया का और लोहचुबंक का आकर्षण तथा अपसारण प्रभृति केवल जड़ सृष्टि में ही अगोचर होने वाले गुणों का मूल कारण ठीक-ठीक बतलाया नहीं जा सकता [3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 3. 28
  2. छां. 6. 2. 3; तै.2. 6
  3. Without the assumption of an atomic soul the commonest and the most general phenomena of Chemistry are inexplicable. Pleasure and pain, desire and aversion, attraction and repulsion must be common to all atoms of an aggregate; for the movements of atoms which must take place in the formation and dissolution of a chemical compound can be explained only by attributing to them Sensation and Will. "- Haeckel in the Perigenesis of the Plastidule cited in Martineaus's Types of Ethical Theory, Vol II. P. 399, 3rd Ed. Haeckel himself explains this statement as follows-" I explicitly stated that I conceived the elementary psychic qualities of sensation and will which may be attributed to atoms, to be unconscious- just as unconscious as the elementary memory, which I, in common with the distinguished psychologist Ewald Hering, consider to be a common function of all orgainsed matter, or more correctly the living substances. "-The Riddle of the Universe, Chap.IX. p. 63 (R. P. A. Cheap Ed.).

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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