गीता रहस्य -तिलक पृ. 156

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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आठवां प्रकरण

इसके उल्टा वेदसंहिता, उपनिषद् और स्मृति-ग्रन्थों में प्रकृति को मूल न मान कर परब्रह्म को मूल माना है; और परब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति होने के विषय में भिन्न वर्णन किये गये हैं:- जैसे ‘‘हिरणयगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्” -पहले हिरणयगर्भ [1], और इस हिरणयगर्भ से अथवा सत्य से सब सृष्टि उत्पन्न हुई [2], अथवा पहले पानी उत्पन्न हुआ [3]और फिर उससे सृष्टि हुई; इस पानी में एक अंडा उत्पन्न हुआ और उससे ब्रह्मा उत्पन्‍न हुआ, तथा ब्रह्मा से अथवा उस मूल अंडे से ही सारा जगत् उत्पन्न हुआ [4]; अथवा वही ब्रह्मा (पुरुष) आधे हिस्से से स्त्री हो गया [5], अथवा पानी उत्पन्न होने के पहले ही पुरुष था [6]; अथवा पहले परब्रह्म से तेज, पानी, और पृथ्वी ( अन्न ) यही तीन तत्त्व उत्पन्न हुए और पश्चात् उनके मिश्रण से सब पदार्थ बने ([7]। यद्यपि उक्त वर्णनों में बहुत भिन्नता है, तथापि वेदान्तसूत्रों [8] में अंतिम निर्णय यह किया गया है, कि आत्मरूपी मूलब्रह्म से ही आकाश आदि पञ्चमहाभूत क्रमशः उत्पन्न हुए हैं [9]। प्रकृति, महत् आदि तत्त्वों का भी उल्लेख कठ [10], मैत्रायणी [11], श्वेताश्वर [12] आदि उपनिषदों में स्पष्ट रीति से किया गया है।

इससे देख पड़ेगा कि, यद्यपि वेदान्‍त मत वाले प्रकृति को स्वतन्त्र न मानते हों, तथापि जब एक बार शुद्ध ब्रह्म ही में मायात्मक प्रकृतिरूप विकार दृष्टिगोचर होने लगता है तब, आगे सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम के सम्बन्ध में उनका और सांख्यमत वालों का अंत में मेल हो गया और, इसी कारण महाभारत में कहा है कि ‘‘ इतिहास, पुराण, अर्थशास्त्र आदि में जो कुछ ज्ञान भरा है वह सब सांख्यों से प्राप्त हुआ है ‘‘ [13]। उसका यह मतलब नहीं है, कि वेदान्तियों ने अथवा पौराणिकों ने यह ज्ञान कपिल से प्राप्त किया है; किन्तु यहाँ पर केवल इतना ही अर्थ अभिप्रेत है, कि सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम का ज्ञान सर्वत्र एक सा देख पड़ता है। इतना ही नहीं; किन्तु यह भी कहा जा सकता है, कि यहाँ पर सांख्य शब्द का प्रयोग ‘ज्ञान’ के व्यापक अर्थ ही में किया गया है। कपिलाचार्य ने सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम का वर्णन शास्त्रीय दृष्टि से विशेष पद्धति-पूर्वक किया है; और भगवद्गीता में भी विशेष करके इसी सांख्य-क्रम को स्वीकार किया गया है; इस कारण उसी का विवेचन इस प्रकरण में किया जायेगा। सांख्यों का सिद्धान्त है कि, इन्द्रियों को अगोचर अर्थात् अव्यक्त, सूक्ष्म, और चारों ओर अखंडित भरे हुए एक ही निरवयव मल द्रव्य से, सारी व्यक्त सृष्टि उत्‍पन्‍न हुई है। यह सिद्धान्त पश्चिम देशों के अर्वाचीन आधिभौतिक-शास्त्रज्ञों को ग्राह्य है। ग्राह्य ही क्यों, अब तो उन्होंने यह भी निश्चित किया है, कि इस मूल द्रव्य की शक्ति का क्रमशः विकास होता आया है, और पूर्वापर क्रम को छोड़ अचानक या निरर्थक कुछ भी निर्माण नहीं हुआ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऋ. 10. 121. 1
  2. ऋ. 10. 72; 10. 190
  3. ऋ. 10. 82. 6; तै. ब्रा. 1. 1. 3. 7; ऐ. उ. 1. 1. 2
  4. मनु. 1. 8-13; छां. 3. 19
  5. बृ. 1. 4. 3.;मनु. 1. 32
  6. कठ. 4. 6
  7. छां. 6. 2-6
  8. 2. 3. 1-15
  9. तै. उ. 2. 1
  10. 3. 11
  11. 6. 10
  12. 4. 10; 6. 16
  13. शां. 301. 108, 109

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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