गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
पाँचवां प्रकरण
परन्तु स्मरण रहे कि आधिभौतिक सुख ही समस्त प्रकार के सुखों का भण्डार नहीं है, इसलिये उपर्युक्त कठिनाई में से आत्यन्तिक और नित्य सुख-प्राप्ति का मार्ग ढूढ़ लिया जा सकता है। यह ऊपर बतलाया जा चुका हैं कि सुखों के दो भेद हैं- एक शारीरिक और दूसरा मानसिक। शरीर अथवा इंन्द्रियों के व्यापारों की अपेक्षा मन को ही अन्त में अधिक महत्त्व देना पड़ता है। ज्ञानी पुरुष जो यह सिद्धांत बतलाते हैं कि शारीरिक (अर्थात आधिभौतिक) सुख की अपेक्षा मानसिक सुख की योग्यता अधिक है उसे वे कुछ अपने ज्ञान के घमंड़ से नहीं बतलाते। प्रसिद्ध आधिभौतिक- वादी मिल ने भी अपने उपयुक्ततावाद विषयक ग्रंथ में साफ साफ मंजूर किया है[1] कि उक्त सिद्धांत में ही श्रेष्ठ मनुष्य-जन्म की सच्ची सार्थकता और महत्ता है। कुत्ते, शूकर और बैल इत्यादि को भी इन्द्रियसुख का आनन्द मनुष्यों के समान ही होता है; तो फिर मनुष्य पशु बनने पर भी राजी हो गया होता। परन्तु पशुओं के सब विषय-सुखों के नित्य मिलने का अवसर आने पर भी कोई मनुष्य पशु होने को राजी नहीं होता; इससे यही विदित होता है कि मनुष्य और पशु में कुछ न कुछ विशेषता अवश्य है।इस विशेषता को समझने के लिये, उस आत्मा के स्वरूप का विचार करना पड़ता है जिसे मन और बुद्धि द्वारा स्वयं अपना और बाहय सृष्टि ज्ञान होता है; और, ज्योंहि यह विचार किया जायगा त्योंही स्पष्ट मालूम हो जायगा, कि पशु और मनुष्य के लिये विषयोपभोग सुख तो एक ही सा है, परन्तु इसकी अपेक्षा मन और बुद्धि के अत्यन्त उदात्त व्यापार में तथा शुद्धावस्था में जो सुख है वही मनुष्य का श्रेष्ठ और आत्यन्तिक सुख है। यह सुख आत्मवश है; इसकी प्राप्ति किसी बाह्य वस्तु पर अवलंबित नहीं; इसकी प्राप्ति के लिये दूसरों के सुख को न्यून करने की भी कुछ आवश्यकता नहीं है। यह सुख अपने ही प्रयत्न से हमीं को मिलता है और ज्यों ज्यों हमारी उन्नति होती जाती है त्यों त्यों इस सुख का स्वरूप भी अधिकाधिक शुद्ध और निर्मल होता चला जाता है। भर्तृहरि ने सच कहा है कि “मनसि च परितुष्टे कोअर्थवान् को दरिद्रः’’- मन के प्रसन्न होने पर क्या दरिद्रता और क्या अमीरी दोनों समान ही हैं। प्लेटो नामक प्रसिद्ध यूनानी तत्त्ववेत्ता ने भी यह प्रतिपादन किया है कि शारीरिक (अर्थात बाह्य अथवा आधिभौतिक) सुख की अपेक्षा मन का सुख श्रेष्ठ है, और मन के सुखों से भी बुद्धिग्राह्य अर्थात् परम आध्यात्मिक सुख अत्यन्त श्रेष्ठ है[2]। इसलिये यदि हम मोक्ष के विचार को अभी छोड़ दें, तो भी यही सिद्ध होता है कि जो बुद्धि आत्मविचार में निमग्न हो उसे ही परम सुख मिल सकता है। इसी कारण भगवद्गीता में सुख के (सात्त्विक, राजस और तामस) तीन भेद किये गये हैं, और इनका कारण लक्षण भी बतलाया गया है, यथाः- आत्मनिष्ठ बुद्धि (अर्थात् सब भूतों में एक ही आत्मा को जान कर, आत्मा के उसी सच्चे स्वरूप मे रत होने वाली बुद्धि) की प्रसन्नता से जो आध्यात्मिक सुख प्राप्त होता है वही श्रेठ सात्त्विक सुख है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ” It is better to be a human being dissatisfied than a pig satisfied; better to be Socrates dissatisfied than a . fool satisfied. And if the fool, or the pig, is of a different opinion, it is be Utilitarianism, p. 14 ( Longmans 1907).
- ↑ Republic, Book 9
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