गीता रहस्य -तिलक पृ. 104

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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पाँचवां प्रकरण


कर्मण्येवाधिकारस्तं मा फलेशु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूः मा ते संगोअस्त्वकर्मणि ।।

इस श्लोक में [1] श्रीभगवान अर्जुन को पहले यह बतलाते हैं, कि तू इस कर्मभूमि में पैदा हुआ है इसलिये “तुझे कर्म करने का ही अधिकार है’’ परन्तु इस बात को भी ध्यान में रख कि तेरा यह अधिकार केवल (कर्तव्य) कर्म करने का ही है।’’ एव ‘पद का अर्थ है’ केवल जिससे यह सहज ही विदित होता है कि मनुष्य का अधिकार कर्म के सिवा अन्य बातों में- अर्थात कर्मफल के विषय में नहीं है। यह महत्त्वपूर्ण बात केवल अनुमान पर ही अवलंबित नहीं रख दी है, क्योंकि दूसरे चरण में भगवान ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया है कि “तेरा अधिकार कर्म-फल के विषय में कुछ भी नहीं है’’ अर्थात किसी कर्म का फल मिलना न मिलना तेरे अधिकार की बात भी नहीं है “वह सृष्टि के कर्मविपाक पर या ईश्वर पर अवलम्बित है। तो फिर जिस बात में हमारा अधिकार ही नहीं है उसके विषय में आशा करना, कि वह अमुक प्रकार हो, केवल मूर्खता का लक्षण है। परन्तु यह तीसरी बात भी अनुमान पर अवलंबित नहीं है।

तीसरे चरण में कहा गया है कि “इसीलिये तू कर्म-फल की आशा रखकर किसी भी काम को मत कर “क्योंकि कर्मविपाक के अनुसार तेरे कर्मो का जो फल होना होगा वह अवश्य होगा ही, तेरी इच्छा से उसमें कुछ न्यूनाधिकता नहीं हो सकती और न उसके देरी से या जल्दी से हो जाने ही की संभावना है, परन्तु यदि तू ऐसी आशा रखेगा या आग्रह करेगा तो तुझे केवल व्यर्थ दुःख ही मिलेगा। अब यहाँ कोई कोई- विशेषतः संन्यासमार्गी पुरुष-प्रश्न करेंगे, कि कर्म करके फलाशा छोड़ने के झगड़े में पड़ने की अपेक्षा कर्माचरण को ही छोड़ देना क्या अच्छा नहीं होगा?इसलिये भगवान ने अंत में अपना निश्चित मत भी बतला दिया है, कि “कर्म न करने का (अकर्मणि) तू हठ मत कर’’ तेरा जो अधिकार है उसके अनुसार- परन्तु फलाशा छोड़कर- कर्म करता जा। कर्मयोग की दृष्टि से ये सब सिद्धान्त इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि उक्त श्लोक के चारों चरणों को यदि हम कर्मयोगशास्त्र या गीताधर्म के चतुःसूत्र भी कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

यह मालूम हो गया कि इस संसार में सुख-दुःख हमेशा क्रम से मिला करते हैं और यहाँ सुख की अपेक्षा दुःख की ही मात्रा अधिक है। ऐसी अवस्था में ही जब यह सिद्धांत बतलाया जाता है कि सांसारिक कर्मों को छोड़ नहीं देना चाहिये तब कुछ लोगों की यह समझ हो सकती है कि दुःख की आत्यन्तिक निवृति करने और अत्यन्त सुख प्राप्त करने के सब मानवी प्रयत्न व्यर्थ हैं और केवल आधिभौतिक अर्थात इन्द्रियगम्य बाह्य विषयोपभोगरूपी सुखों को ही देखें, तो यह नहीं कहा जा सकता कि उनकी यह समझ ठीक नहीं है। सच है; यदि कोई बालक पूर्ण चंद्र को पकड़ने के लिये हाथ फैला दे तो जैसे आकाश का चंद्रमा उस के हाथ में कभी नहीं आता, उसी तरह आत्यन्तिक सुख की आशा रखकर केवल आधिभौतिक सुख के पीछे लगे रहने से आत्यन्तिक सुख की प्राप्ति कभी नहीं होगी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 2.47

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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