गीता रहस्य -तिलक पृ. 103

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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पाँचवां प्रकरण

कि तृष्णा या असन्तोष के साथ साथ कर्म को भी त्याग देने से संसार के ही नष्ट हो जाने का जो प्रसंग आ सकता है, वह भी नहीं आ सकेगा; और, हमारी मनोवृतियां शुद्ध होकर प्राणि मात्र के लिये हितप्रद हो जावेगी। इसमें सन्देह नहीं कि इस तरह फलाशा छोड़ने के लिये भी इन्द्रियों का और मन का वैराग्य से पूरा दमन करना पड़ता है। परन्तु स्मरण रहे कि इन्द्रियों को स्वाधीन करके, स्वार्थ के बदले, वैराग्य से तथा निष्काम बुद्धि से लोकसंग्रह के लिये, उन्हें अपने अपने व्यापार करने देना कुछ और बात है; और संन्यासमार्गानुसार तृष्णा को मारने के लिये इन्द्रियों के सभी व्यापारों को अर्थात कर्मों को आग्रहपूर्वक समूल नष्ट कर डालना बिलकुल ही भिन बात है- इन दोनों में जमीन आसमान का अंतर है। गीता में जिस वैराग्य का और जिस इन्द्रियनिग्रह का उपदेश किया गया है वह पहले प्रकार का है, दूसरे प्रकार का नहीं; संवाद में राजा जनक ब्राहाण- रूपधारी धर्म से कहते हैं किः-

श्रृणु बुद्धिं च यां ज्ञात्वा सर्वत्र विषयो मम । नाहमात्मार्थमिच्छामि गंधान् घ्राणगतानपि ।।

नाहमात्मार्थमिच्छामि मनो नित्यं मनोंतरे । मनो में निर्जितं तस्मात् वशे तिष्ठति सर्वदा ।।

अर्थात् “जिस (वैराग्य) बुद्धि को मन में धारण करके मैं सब विषयों का सेवन करता हूं, उसका हाल सुनो। नाक से मैं ‘अपने लिये’ बास नहीं लेता,[1]और मन का भी उपयोग मैं आत्मा के लिये अर्थात अपने लाभ के लिये नहीं करता; अतएव मेरी नाक (आंख इत्यादि) और मन मेरे वश में हैं अर्थात मैंने उन्हें जीत लिया है। ‘गीता के वचन[2] का भी यही तात्पर्य है कि जो मनुष्य केवल इन्द्रियों की वृति को [3]तो रोक देता हैं और मन से विषयोंका चिन्तन करता रहता है, वह पूरा ढोंगी है; और जो मनुष्य मनानिग्रहपूर्वक काम्य बुद्धि को जीत कर, सब मनोवृतियां को लोकसंग्रह के लिये अपना अपना काम करने देता है, वही श्रेष्ठ है। बाह्यजगत या इन्द्रियों के व्यापार हमारे उत्पन्न किये हुए नहीं हैं, वे स्वभावसिद्ध हैं।

हम देखते हैकि जब कोई संन्यासी बहुत भूखा होता है तब उसको- चाहे वह कितना ही निग्रही हो- भीख मांगने के लिये कहीं बाहर जाना ही पड़ता है [4]; और, बहुत देर तक एक ही जगह बैठे रहने से उब करवह उठ खड़ा हो जाता है। तात्पर्य यह है कि निग्रह चाहे कितना हो, परन्तु इन्दियों के जो स्वभाव-सिद्ध व्यापार हैं वे कभी नहीं छूटते; और यदि यह बात सच है तो इन्द्रियों की वृति तथा सब कर्मों को और सब प्रकार इच्छा या असन्तोष को नष्ट करने के दुराग्रह में न पड़ना [5], एवं मनोनिग्रह पूर्वक फलाशा छोड़कर सुख-दुःख को एक-बराबर समझना [6], तथा निष्काम बुद्धि से लोकहित के लिये सब कर्मों को शास्त्रोक्त रीति से करते रहना ही, श्रेष्ठ तथा आदर्श मार्ग हैं इसीलिये-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आंखों से मैं ‘अपने लिये’ नहीं देखता’ इत्यादि
  2. गी. 3.6,7
  3. गी. र. 15
  4. गी. 3.33
  5. गी. 2.47; 18,59
  6. गी. 2.39

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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