गीता रहस्य -तिलक पृ. 106

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

Prev.png
पाँचवां प्रकरण

“तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तं आत्मबुद्धि- प्रसादजम्’’ [1]; जो आधिभौतिक सुख इंद्रियों से और इन्द्रियों के विषयों से होते हैं वे सात्त्विक सुखों से कमदर्जे के होते हैं और राजस कहलाते हैं [2]; और जिसे सुख से चित्त को मोह होता है तथा जो सुखनिद्रा या आलस्य से उत्पन्न होता है उसकी योग्यता तामस अर्थात कनिष्ठ श्रेणी की है। इस प्रकरण के आरम्भ में गीता का जो श्लोक दिया है, उसका यही तात्पर्य है; और गीता[3] में कहा ही है कि इस परम सुख का अनुभव मनुष्य को यदि एक बार भी हो जाता है तो फिर उसकी यह सुखमय स्थिति कभी नहीं डिगने पाती, कितने ही भारी दुःख के जबरदस्त धक्के क्यों न लगते रहें। यह आत्मन्तिक सुख स्वर्ग के भी विषयोपभोग-सुख में नहीं मिल सकता; इसे पाने के लिये पहले अपने बुद्धि को प्रसन्न रखना चाहिये। जो मनुष्य बुद्धि को प्रसन्न रखने की युक्ति को बिना सोचे- समझे ही केवल विषयोपभोग में ही निमग्र हो जाता है, उसका सुख अनित्य और क्षणिक होता है।

इसका कारण यह है, कि जो इन्द्रिय-सुख आज है वह कल नहीं रहता। इतना ही नहीं; किन्तु जो बात हमारी इन्द्रियों को आज सुखकारक प्रतीत होती है, वही किसी कारण से दूसरे दिन दुःखमय हो जाती है। उदाहरणार्थ, ग्रीष्म ऋतु में जो ठंडा पानी हमें अच्छा लगता है, वही शीतकाल में अप्रिय हो जाता है। और, इतना करने पर भी, उससे सुखेच्छा की पूर्ण तृप्ति होने ही नहीं पाती। इसलिये, सुख शब्द का व्यापक अर्थ लेकर यदि हम उस शब्द का उपयोग सभी प्रकार के सुखों के लिये करें तो हमें सुख- सुख में भी भेद करना पड़ेगा। नित्य व्यवहार में सुख का अर्थ मुख्यतः इन्द्रिय- सुख ही होता है। परन्तु जो सुख इन्द्रियातीत है अर्थात जो केवल आत्मनिष्ठ बुद्धि को ही प्राप्त हो सकता है उसमें, और विषयोपभोग- रूपी सुख में जब भिन्नता प्रगट करना हो, तब आत्मबुद्धि- प्रसाद से उत्पन्न होने वाले सुख को अर्थात आध्यात्मिक सुख को श्रेय, कल्याण, हित, आनन्द अथवा शान्ति कहते है; और विषयोपभोग से होने वाले आधिभौतिक सुख को केवल सुख या प्रेय कहते है।

पिछले प्रकरण के अन्त में दिये हुए कठोरपनिषद के वाक्य में, प्रेय और श्रेय में, नचिकेता ने जो भेद बतलाया है उसका भी अभिप्राय यही है। मृत्यु ने उसे अग्नि का रहस्य पहले ही बतला दिया था; परन्तु इस सुख के मिलने पर भी जब उसने आत्मज्ञान- प्राप्ति का वर मांगा, तब मृत्यु ने उसके बदले में उसे अनेक सांसारिक सुखों का लालच दिखलाया। परन्तु नचिकेता इन अनित्य आधिभौतिक सुखों को कल्याणकारक नहीं समझता था, क्योंकि ये (प्रेय) सुख बाहरी दृष्टि से अच्छे हैं, पर आत्मा के श्रेय के लिये नहीं है; इसीलिये उसने उन सुखों की ओर ध्यान नहीं दिया, किन्तु उस आत्मविद्या की प्राप्ति के लिये ही हठ किया जिसका परिणाम आत्मा के लिये श्रेयस्कर या कल्याणकारक है, और उसे अंत में पा कर ही छोड़ा। सारांश यह है, कि आत्मबुद्धि- प्रसाद से होने वाले केवल बुद्धिगम्य सुख को अर्थात आध्यात्मिक सुख को ही हमारे शास्त्रकार श्रेष्ठ सुख मानते हैं और उनका कथन है, कि यह नित्य सुख आत्मवश है इसलिये सभी को प्राप्त हो सकता है तथा सब लोगों को चाहिये कि वे इसकी प्राप्ति के लिये प्रयत्न करें।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 18.37
  2. गी.18.38
  3. 6.22

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः