गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
ग्यारहवाँ प्रकरण
वह उनका जैसा चाहेगा वैसा धारण-पोषण करेगा, उधर देखना मेरा काम नहीं है।’’ क्योंकि ज्ञान-प्राप्ति के बाद ‘परमेश्वर’ ‘मैं’ और लोग’–यह भेद नहीं रहता; और यदि रहे तो उसे ढ़ोंगी कहना चाहिये, ज्ञानी नहीं। यदि ज्ञान से ज्ञानी पुरुष परमेश्वर रूपी हो जाता है, तो परमेश्वर जो काम करता है, परमेश्वर के समान अर्थात् निस्संग बुद्धि से करने की आवश्यकता ज्ञानी पुरुष को कैसे छोड़ेगी[1]? इसके अतिरिक्त परमेश्वर को जो कुछ करना है, वह भी ज्ञानी पुरुष के रूप रूा द्वारा से ही करेगा। अतएव जिसे परमेश्वर के स्वरूप का ऐसा अपरोक्ष ज्ञान हो गया है, कि ‘’ सब प्राणियों में एक आत्मा है,’’ उसके मन में सर्वभूतानुकम्पा आदि उदात्त वृत्तियां पूर्णता से जागृत रहकर स्वभाव से ही उसके मन की प्रवृति लोक कल्याण की ओर हो जानी चाहिये। इसी अभिप्राय से तुकाराम महाराज साधुपुरुष के लक्षण इस प्रकार बतलाते है; ‘’जो दीन दुखिायों को अपनाता है वही साधु है-ईश्वर भी उसी के पास है;’’[2]और अन्त में सन्तजनों के ( अर्थात् भक्ति से परमेश्वर का पूर्ण ज्ञान पाने वाले महात्माओं के ) कार्य का वर्णन इस प्रकार किया है ‘’संतो की विभूतियां जगत् के कल्याण ही के लिये हुआ करती हैं, वे लोग परोपकार के लिये अपने शरीर को कष्ट दिया करते हैं।’’ भर्तृहरि ने वर्णन किया है कि परार्थ ही जिसका स्वार्थ हो गया है, वही पुरुष साधुओं में श्रेष्ठ है,-‘’स्वार्थो यस्य परार्थ एव स पुमानेक: सतामग्रणी:।’’ क्या मनु आदि शास्त्रप्रणेता ज्ञानी न थे? परन्तु उन्होनें तृष्णा-दुख को बड़ा भारी हौवा करके तृष्णा के साथ ही साथ परोपकार-बुद्धि आदि सभी उदात्तवृत्तियों को नष्ट नहीं कर दिया–उन्होंनें लोकसंग्रहकारक चातुर्वणर्य प्रभृति शास्त्रीय मर्यादा बना देने का उपयोगी काम किया है। ब्राह्मण को ज्ञान, क्षत्रिय को युद्ध, वैश्य को खेती, गोरक्षा और व्यापार अथवा शूद्र को सेवा-ये जो गुण, कर्म और स्वभाव के अनुरूप भिन्न-भिन्न कर्म शास्त्रों में वर्णित हैं, वे केवल प्रत्येक व्यक्ति के हित के ही लिये नहीं हैं; प्रत्युत मनुस्मृति[3]में कहा है, कि चातुर्वणर्य के व्यापारों का विभाग लोकसंग्रह के लिये ही इस प्रकार प्रवृत्त हुआ है: सारे समाज के बचाव के लिये कुछ पुरुषों को प्रतिदिन युद्धकला का अभयास करके सदा तैयार रहना चाहिये और कुछ लोगों को खेती, व्यापार एवं ज्ञानार्जन प्रभृति उद्योगों से समाज की अन्यान्य आवश्यकताएं पूर्ण करनी चाहिये। गीता[4] का अभिप्राय भी ऐसा ही है। यह पहले कहा ही जा चुका है, कि इस चातुर्वणर्यधर्म में से यदि कोई एक भी धर्म डूब जाय तो समाज उतना ही पंगु हो जायगा और अन्त में उसके नाश हो जाने की भी सम्भावना रहती है। स्मरण रहे कि उद्योगों के विभाग की यह व्यवस्था एक ही प्रकार की नहीं रहती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गी. 3. 22 और 4.14 एवं 15
- ↑ इसी भाव को कविवर बाबू मैथिलीशरण गुप्त ने यों व्यक्त किया है:- वास उसी में है विभुवर का है बस सच्चा साधु वही- जिसने दुखियों को अपनाया, बढ़कर उनकी बांह गही। आत्मस्थिति जानी उसने ही परहित जिसने व्यथा सही, परहितार्थ जिनका वैभव है, है उनसे ही धन्य मही।।
- ↑ 1.87
- ↑ 4. 13. 18. 41
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