गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
ग्यारहवाँ प्रकरण
प्राचीन यूनानी तत्त्वज्ञ प्लेटो ने एतद्विषयक अपने ग्रन्थ में, और अर्वाचीन फ्रेंच्च शास्त्रज्ञ कोंट नें अपने ‘’ आधिभौतिक तत्त्वज्ञान’’ में, समाज की स्थिति के लिये जो व्यवस्था सूचित की है, वह यद्यपि चातुर्वणर्य के सदृश है; तथापि उन ग्रन्थों को पढ़ने से कोई भी जान सकेगा, कि उस व्यवस्था में वैदिक धर्म की चातुर्वणर्य व्यवस्था से कुछ न कुछ भिन्नता है इनमें से कौन सी समाजव्यवस्था अच्छी है? इत्यादि अनेक प्रश्न यहाँ उठते हैं; और आज कल तो पश्चिमी देशों में ‘लोकसंग्रह’ एक महत्त्व का शास्त्र बन गया बैठा है। परंतु गीता का तात्पर्य-निर्णय ही हमारा प्रस्तुत विषय है, इसलिये कोई आवश्यक नहीं कि यहाँ उन प्रशनों पर भी विचार करें। यह बात निर्विवाद है, कि गीता के समय में चातुर्वणर्य की व्यवस्था जारी थी और ‘लोकसंग्रह करने के हेतु से ही वह प्रवृत की गई थी। इसलिये गीता के ‘लोक-संग्रह’ पद का अर्थ यही होता है, कि लोगों को प्रत्यक्ष दिखला दिया जावे कि चातुर्वणर्य की व्यवस्था के अनुसार अपने अपने प्राप्त कर्म निष्काम बुद्धि से किस प्रकार करना चाहिये। यही बात मुख्यता से यहाँ बतलानी है। ज्ञानी पुरुष समाज के न सिर्फ नेत्र हैं, वर गुरु भी हैं। इससे आप ही आप सिद्ध हो जाता है कि उल्लिखित रीति का लोकसंग्रह करने के लिये, उन्हें अपने समय की समाजव्यवस्था में यदि कोई न्यूनता जँचे, तो वे उसे श्वेत केतु के समान देशकालानुरूप परिमार्जित करे और समाज की स्थिति तथा पोषण शक्ति की रक्षा करते हुए उसको उन्नतावस्था में ले जाने का प्रयत्न करते रहें। इसी प्रकार का लोक संग्रह करने के लिये राजा जनक सन्यास लेकर जीवन पर्यन्त राज्य करते रहे ओर मनु ने पहला राजा बनना मान लिया; एवं इसी कारण से ‘’स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि’’[1]-स्वधर्म के अनुसार जो कर्म प्राप्त हैं, उनके लिये रोना तुझे उचित नहीं-,अथवा ‘’स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्रोति किल्बिषम्’’[2]-स्वभाव और गुणों के अनुरूप निश्चित चातुर्वणर्यव्यवस्था के अनुसार नियमित कर्म करने से तुझे कोई पाप नहीं लगेगा-,इत्यादि प्रकार से चातुर्वणर्य-कर्म के अनुसार प्राप्त हुए युद्ध को करने के लिये गीता में बारबार अर्जुन को उपदेश किया गया है। यह कोई भी नहीं कहता, कि परमेश्वर का यथाशक्ति ज्ञान प्राप्त न करो। गीता का भी सिद्धान्त है, कि इस ज्ञान को सम्पादन करना ही मनुष्य का इस जगत में इतिकर्त्तव्य है। परन्तु इसके आगे बढ़ कर गीता का विशेष कथन यह है कि, आत्मा के कल्याण में ही समष्टि रूप आत्मा के करुणार्थ यथाशक्ति प्रयत्न करने का भी समावेश होता है, इसलिये लोकसंग्रह करना ही ब्रह्मात्मैक्य-ज्ञान का सच्चा पर्यवसान है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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