गीता रहस्य -तिलक पृ. 324

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण

अतएव गीता का कथन है कि उसे ( ज्ञानी पुरुष को ) कर्म छोड़ने का अधिकार कभी प्राप्‍त नहीं होता; अपने लिये; न सही परन्‍तु लोक संग्रहार्थ चातुर्वणार्थ के सब कर्म अधिकारानुसार उसे करना ही चाहिये। किन्‍तु संन्‍यासमार्गवालों का मत है, कि ज्ञानी पुरुष को चातुर्वणर्य के कर्म निष्‍काम बुद्धि से करने की भी कुछ ज़रूरत नहीं-यही क्‍यों, करना भी नहीं चाहिये; इसलिये इस सम्‍प्रदाय के टीकाकार गीता के ‘’ज्ञानी पुरुष को लोकसंग्रहार्थ कर्म करना चाहिये’’ इस सिद्धान्‍त का कुछ गड़बड़ अर्थ कर प्रत्‍यक्ष नहीं तो पर्याय से, यह कहने के लिये तैयार से हो गये हैं, कि स्‍वयं भगवान् ढोंग का उपदेश करते हैं! पूर्वापर सन्‍दर्भ से प्रगट है, कि गीता के लोकसंग्रह शब्‍द का यह ढिलमिल या पोचा अर्थ सच्‍चा नहीं। गीता को यह मत ही मंजूर नहीं, कि ज्ञानी पुरुष को कर्म छोडने का अधिकार प्राप्‍त है; और, इसके सुबूत में गीता में जो कारण दिये गये हैं, उनमें लोकसंग्रह एक मुख्‍य कारण है इसलिये, यह मान कर कि ज्ञानी पुरुष के कर्म छूट जाते हैं, लोकसंग्रह पद का ढोंगी अर्थ करना सर्वथा अन्‍याय है। इस जगत में मनुष्‍य केवल अपने ही लिये नहीं उत्‍पन्‍न हुआ है। यह सच है, कि सामान्‍य लोग ना- समझी से स्‍वार्थ में ही फँसे रहते हैं; परन्‍तु ‘’सर्वभूतस्‍थमात्‍मानं सर्वभूतानि चात्‍मनि’’[1]- मैं सब भूतों में हूँ और सब भूत मुझ में हैं- इस रीति से जिसका समस्‍त संसार ही आत्‍मभूत हो गया है, उसका अपने मुख से यह कहना ज्ञान में बट्टा लगाना है, कि ‘’मुझे तो मोक्ष मिल गया, अब यदि लोग दु:खी हों, तो मुझे इसकी क्‍या परवा?’’

ज्ञानी पुरुष का आत्‍मा क्‍या कोई स्‍वतंत्र व्‍यक्ति है? उसके आत्‍मा पर जब तक अज्ञान का पर्दा पड़ा था, तब तक ‘अपना’ और ‘पराया’ यह भेद कायम था। परन्‍तु ज्ञान-प्राप्ति के बाद सब लोगों का आत्‍मा ही उसका आत्‍मा है। इसी से योगवासिष्‍ठ में राम से वसिष्‍ठ ने कहा है-

यावल्‍लोकपरामर्शो निरूढो नास्ति योगिन:।
तावद्रूढसमाधित्‍वं न भवत्‍येव निर्मलम्।।

‘’जब तक लोगों के परामर्श लेने का ( अर्थात् लोकसंगह का ) काम थोड़ा भी बाकी है-समाप्‍त नहीं हुआ है-तब तक यह कभी नहीं कह सकते कि योगारूढ़ पुरुष की स्थिति निर्दोष है’’[2]। केवल अपने ही समाधि-सुख में डूब जाना मानो एक प्रकार से अपना ही स्‍वार्थ साधना है। संन्‍यासमार्गवाले इस बात की ओर दुर्लक्ष करते हैं, यही उनकी युक्ति-प्रयुक्तियों का मुख्‍य दोष है। भगवान् की अपेक्षा किसी का भी अधिक ज्ञानी, अधि‍क निष्‍काम अधिक योगा-रूढ़ होना शक्‍य नहीं। परन्‍तु जब स्‍वयं भगवान् भी ‘’साधुओं का संरक्षण, दुष्‍टों का नाश और धर्म-संस्‍थापना ’’ ऐसे लोकसंग्रह के काम करने के लिये ही समय समय पर अवतार लेते हैं[3], तब लोकसंग्रह के कर्त्तव्‍य को छोड़ देनेवाले ज्ञानी पुरुष का यह कहना सर्वथा अनुचित है कि ‘’जिस परमेश्‍वर ने इन सब लोगों को उत्‍पन्‍न किया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 6. 29
  2. यो. 6.पू. 128. 97
  3. गी. 4. 8

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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