गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
ग्यारहवाँ प्रकरण
संन्यास या चतुर्थाश्रम शब्दों की अपेक्षा कर्मसंन्यास अथवा कर्मत्याग शब्द यहाँ अधिक अन्वर्थक और नि:सन्दिग्ध हैं। परन्तु इन दोनों की अपेक्षा सिर्फ संन्यास शब्द के व्यवहार की अधिक रीति होने के कारण उसके पारिभाषिक अर्थ का यहाँ विवरण किया गया है। जिन्हे इस संसार के व्यवहार नि:सार प्रतीत होते हैं, वे उससे निवृत हो अरण्य में जा कर स्मृति-धर्मानुसार चतुर्थाश्रम में प्रवेश करते हैं, इससे कर्मत्याग के इस मार्ग को संन्यास कहते हैं। परन्तु इसमें प्रधान भाग कर्मत्याग ही है, गेरूवे कपड़े नहीं। यद्यपि इस प्रकार इन दोनों पक्षों का प्रचार हो कि पूर्ण ज्ञान होने पर आगे कर्म करो (कर्मयोग) या कर्म छोड़ दो (कर्मसंन्यास), तथापि गीता के साम्प्रदायिक टीकाकारों ने अब यहाँ यह प्रश्न छेड़ा है, कि क्या अन्त में मोक्ष्ा-प्राप्ति कर देने के लिये ये दोनों मार्ग स्वतन्त्र अर्थात, एक से समर्थ हैं; अथवा, कर्मयोग केवल पूर्वागं यानी पहली सीढ़ी है और अन्तिम मोक्ष की प्राप्ति के लिये कर्म छोड़ कर संन्यास लेना ही चाहियेॽ गीता के दूसरे और तीसरे अध्यायों में जो वर्णन है, उससे जान पड़ता है कि ये दोनों मार्ग स्वतंत्र हैं। परन्तु जिन टीकाकारों का मत है, कि कभी न कभी संन्यास आश्रम को अंगीकारकर समस्त सांसारिक कर्मों को छोड़े बिना मोक्ष नहीं मिल सकता– और जो लोग इसी बुद्धि से गीता की टीका करने में प्रवृत हुए हैं, कि यही बात गीता में प्रतिपादित की गई है– वे गीता का यह तात्पर्य निकालते हैं, कि “कर्मयोग स्वतन्त्र रीति से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग नहीं है, पहले चित्त की शुद्धता के लिये कर्म कर अन्त में संन्यास ही लेना चाहिये, संन्यास ही अन्तिम मुख्य निष्ठा है। परन्तु इस अर्थ को स्वीकार कर लेने से भगवान ने जो यह कहा है, कि सांख्य (संन्यास) और योग (कर्मयोग) द्विविध अर्थात दो प्रकार की निष्ठाएं इस संसार में हैं ‘[1], उस द्विविध पद का स्वास्थ्य बिलकुल नष्ट हो जाता है। कर्मयोग शब्द के तीन अर्थ हो सकते है:-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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