गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
ग्यारहवाँ प्रकरण
यूरोप में अरिस्टाटल से लेकर अब तक जिस प्रकार इस सम्बन्ध में दो पक्ष हैं, उसी प्रकार भारतीय वैदिक धर्म में भी प्राचीन काल से लेकर अब तक इस सम्बन्ध के दो सम्प्रदाय एक से चले आ रहे हैं[1]। इनमें से एक को संन्यास मार्ग, सांख्य-निष्ठा या केवल सांख्य (अथवा ज्ञान में ही नित्य निमग्न रहने के कारण ज्ञान-निष्ठा भी ) कहते है; और दूसरे को कर्मयोग, अथवा संक्षेप में केवल योग या कर्मनिष्ठा कहते हैं। तीसरे प्रकरण मे कह आये हैं, कि यहाँ ‘साख्य’ और ‘योग’शब्दों का अर्थ क्रमश: कापिल सांख्य और पातजंल योग नहीं है। परन्तु ‘संन्यास’ शब्द भी कुछ सन्दिग्ध है, इसलिये उसके अर्थ का कुछ अधिक विवरण करना यहाँ आवश्यक है। ‘संन्यास’ शब्द के सिर्फ ‘विवाह न करना’ और यदि किया हो तो ‘बाल-बच्चों को छोड़ भगवे कपड़े रंग लेना’ अथवा ‘केवल चौथा आश्रम ग्रहण करना, इतना ही अर्थ यहाँ विवक्षित नहीं है। क्योंकि विवाह न करने पर भी भीष्म पितामह अपने जीवन के अन्त तक राजकाज के उद्योग मे लगे रहे; और श्रीमच्छकराचार्य ने ब्रह्मचर्य से एकदम चौथा आश्रम ग्रहण कर, या महाराष्ट्र देश में श्रीसमर्थ रामदास ने मृत्युपंर्यत ब्रह्मचारी गुसाई रह कर, ज्ञान फैला करके संसार के उद्धारार्थ कर्म किये हैं। अब यहाँ मुख्य प्रश्न यही है, कि ज्ञानोतर संसार के व्यवहार केवल कर्त्तव्य समझ कर लोक-कल्याण के लिये किये जावे अथवा मिथ्यासमझ कर एकदम छोड़ दिये जावेॽ इन व्यवहारों या कर्मों को करने वाला कर्मयोगी कहलाता है; फिर चाहे वह ब्याहा हो या क्वांरा, भगवे कपड़े पहने या सफेद। हां, यह भी कहा जा सकता है कि ऐसे काम करने के लिये विवाह न करना, भगवे कपड़े पहनना अथवा बस्ती से बाहर विरक्त हो कर रहना ही कभी कभी विशेष सुभीते का होता है। क्योंकि फिर कुटुम्ब के भरण-पोषण की झंझट अपने पीछे न रहने के कारण, अपना सारा समय और परिश्रम लोक-कार्यों में लगा देने के लिये कुछ भी अड़चन नहीं रहती। यदि ऐसे पुरुष भेष से संन्यासी हों, तो भी वे तत्त्व-दृष्टि से कर्मयोगी ही हैं। परन्तु विपरीत पक्ष में अर्थात जो लोग इस संसार के समस्त व्यवहारों को नि:सार समझ उनका त्याग करके चुपचाप बैठ रहते हैं, उन्हीं को संन्यासी कहना चाहिये; फिर चाहे उन्होने प्रत्यक्ष चौथा आश्रम ग्रहण किया हो या न किया हो। सारांश, गीता का कटाक्ष भगवे अथवा सफेद कपड़ों पर और विवाह या ब्रह्मचर्य पर नहीं है; प्रत्युत इसी एक बात पर नजर रख कर गीता में संन्यास और कर्मयोग, दोनों मार्गों का विभेद किया गया है, कि ज्ञानी पुरुष जगत् के व्यवहार करता है या नहीं। शेष बातें गीता धर्म में महत्व की नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मभा. शां. 349.7
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