गीता रहस्य -तिलक पृ. 298

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण

यही ‘कर्मयोग’ शब्‍द का तीसरा अर्थ है और गीता में यही कर्मयोग प्रतिपादित किया गया है। यह कर्मयोग संन्‍यासमार्ग का पूर्वांग कदापि नहीं हो सकता; क्‍योंकि इस मार्ग में कर्म कभी छूटते ही नहीं। अब प्रश्‍न है केवल मोक्ष-प्राप्ति के विषय में। इस पर गीता में स्‍पष्‍ट कहा है, कि ज्ञान-प्राप्ति हो जाने से निष्‍काम-कर्म बन्‍धक नहीं हो सकते, प्रत्‍युत संन्‍यास से जो मोक्ष मिलता है वही इस कर्मयोग से भी प्राप्‍त होता है[1]। इसलिये गीता का कर्मयोग संन्‍यासमार्ग का पूर्वांग नहीं है; किन्‍तु ज्ञानोत्तर ये दोनों मार्ग मोक्षदृष्टि से स्‍वतन्‍त्र अर्थात तुल्‍यबल के हैं[2]; गीता के “लोकेऽस्मिन द्विधा निष्‍ठा”[3] का यही अर्थ करना चाहिये। और इसी हेतु से, भगवान ने अगले चरण में –“ज्ञानयोगेन सांख्‍यानां कर्मयोगेन योगिनाम्”–इन दोनों मार्गों का पृथक्‌ पृथक्‌ स्‍पष्टिकरण किया है। आगे चलकर तेरहवें अध्‍याय में कहा है “अन्‍ये सांख्‍येन योगेन कर्मयोगेन चापरे”[4] इस श्‍लोक के–‘अन्‍ये’ (एक) और ‘अपरे’ (दूसरे)– ये पद उक्‍त दोनों मार्गों को स्‍वतन्‍त्र माने बिना, अन्‍वर्थक नहीं हो सकते। इसके सिवा, जिस नारायणीय धर्म का प्रवृतिमार्ग (योग) गीता में प्रतिपादित है, उसका इतिहास महाभारत में देखने से यही सिद्धांत दृढ़ होता है। सृष्टि के आरम्‍भ में भगवान ने हिरणगर्भ अर्थात ब्रह्मा को सृष्टि रचने की आज्ञा दी; उनसे मरीचि प्रमुख सात मानस पुत्र हुए।

सृष्टि-क्रम का अच्‍छे प्रकार आरम्‍भ करने के लिये उन्‍होंने योग अर्थात कर्ममय प्रवृति मार्ग का अवलम्‍ब किया। ब्रह्मा के सनत्‍कुमार और कपिल प्रभृति दूसरे सात पुत्रों ने, उत्‍पन्‍न होते ही, निवृतिमार्ग अर्थात सांख्‍य का अवलम्‍ब किया। इस प्रकार दोनों मार्गों की उत्‍पत्ति बतला कर आगे स्‍पष्‍ठ कहा है, कि ये दोनों मार्ग मोक्ष्‍ा-दृष्टि से तुल्‍यबल अर्थात वासुदेव स्‍वरूपी एक ही परमेश्‍वर की प्राप्ति करा देने वाले, भिन्‍न भिन्‍न और स्‍वतन्‍त्र हैं[5]। इसी प्रकार यह भी भेद किया गया है, कि योग अर्थात प्रवृतिमार्ग के प्रवर्तक हिरणगर्भ है और सांख्‍यमार्ग के मूल प्रर्वतक कपिल है; परन्‍तु यह कहीं नहीं कहा है कि आगे हिरण्यगर्भ ने कर्मों का त्‍याग कर दिया। इसके विपरीत ऐसा वर्णन है, कि भगवान ने सृष्टि का व्‍यवहार अच्‍छी तरह से चलता रखने क लिये यज्ञ-चक्र को उत्‍पन्‍न किया और हिरण्‍यगर्भ से तथा अन्‍य देवताओं से कहा कि इसे निरन्‍तर जारी रखो[6]। इससे निर्विवाद सिद्ध होता है, कि सांख्‍य और योग दोनों। मार्ग आरम्‍भ से ही स्‍वतंत्र हैं। इससे यह भी देख पड़ता है, कि गीता के साम्‍प्रदायिक टीकाकारों ने कर्ममार्ग को जो गौणत्‍व देने को प्रयत्‍न किया है, वह केवल साम्‍प्रदायिक आग्रह का परिणाम है, और इन टीकाओं में जो स्‍थान-स्‍थान पर यह तुर्रा लगा रहता है, कि कर्मयोग ज्ञानप्राप्ति अथवा संन्‍यास का केवल साधनमात्र है, वह इनकी मनगढ़न्‍त है– परन्‍तु गीता का सच्‍चा भावार्थ वैसा नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी.5. 5
  2. गी.5. 2
  3. गी.3.3
  4. गी.13. 24
  5. मभा. शां. 348.74; 349.63-73
  6. मभा. शां. 340. 44-75 और 339. 66, 67

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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