श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 124

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग रामकली

111
मनोहर है नैननि की भाँति।
मानौ दूरि करत बल अपने सरद कमल की काँति ॥1॥
इंदीबर राजीव कुसेसय जीते सब गुन जाति।
अति आनंद सुप्रौढा तातै बिकसत दिन औ राति ॥2॥
खंजरीट मृग मीन बिचारे उपमा कौं अकुलाति।
चंचल चारु चपल अवलोकन चितै न एक समाति ॥3॥
जब कहुँ परत निमेषै अंतर जुग समान पल जाति।
सूरदास वह रसिक राधिका निमि पै अति अनखाति ॥4॥

( सखी कहती है- ) ( श्यामके ) नेत्रोंकी छटा ऐसी मनोहारिणी है मानो अपने बलसे वह शारदीय कमलकी कान्तिको भी दूर ( तिरस्कृत ) करती है । वे अत्यन्त आनन्दमय तथा शक्तिशाली है इसलिये ( वे नेत्रकमल ) दिन-रात प्रफुल्लित रहते है । बिचारे ( तुच्छ ) खञ्जन मृग मछली ( आपके नेत्रोंकी ) उपमा पानेको अकुलाते-व्याकुल होते है ( किंतु वे इनकी तुलना कर नही सकते ) । ( इन-जैसी ) चञ्चलता और मनोहर चपलतापूर्ण देखनेकी छटाका विचार करनेपर ( इनमेसे ) एक भी उपमा चित्तमे ( तुलना-योग्य ) नही जँचती । जब कभी इनको देखनेमे एक निमेषका भी अन्तर पड जाता है तब वह पल युगके समान बीतता है । सूरदासजी कहते है वे रसमयी श्रीराधा इसीलिये ( पलकोंके संचालक देवता ) निमिपर अत्यन्त रोष ( क्रोध ) करती है ( कि वे पलक गिराकर मोहनकी शोभा देखनेमे बाधा डालते है ) ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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