श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 114

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग सूही

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प्रात समै आवत हरि राजत।
रतन जटित कुंडल सखि स्त्रवनन
तिन की किरन सूर तन लाजत ॥1॥
सातौ रासि मेलि द्वादस मैं
कटि मेखला अलंकृत साजत।
पृथ्वी मथी पिता सो लै कर
मुख समीप मुरली धुनि बाजत॥2॥
जलधि तात तिहि नाम कंठ के
तिन के पंख मुकुट सिर भ्राजत।
सूरदास कहै सुनौ गूढ हरि
भगतन भजत अभगतन भाजत ॥3॥

प्रातःकाल आते हुए श्याम शोभायमान हो रहे है । सखी ! उनके कानोंमें रत्नजटित कुण्डल है जिनकी किरणोंसे सूर्य-बिम्ब भी लज्जित होता है । यह जुडी हुई मछलियोंकी आकृतिसे अलंकृत किंकिणी कमरमें शोभा दे रही है और बाँसकी वंशीको हाथ में लेकर मुखसे लगाकर ( सुरीली ) ध्वनिसे बजा रहे है । मयूरपिच्छका मुकुट मस्तकपर शोभा दे रहा है । सूरदासजी कहते है कि हरिकी यह रहस्यमय गति सुनो-भक्तोंके वे भजन करते ( उनसे प्रेम करते ) है और अभक्तोंसे दूर हो जाते है ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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